जनवरी
शासक वर्ग
1
कोरेगांव में केप्टन फ्रांसिस
के नेतृत्व में 200 अछुत महार सैनिको ने बिना कुछ खाए पीए 12 घंटो तक लडते हुए
पेशवा की 20,000 की सेना को
करारी मात दी और “बाह्मणवादी” पेशवाई को खतम किया 1818
बाबासाहब ने इसी दिन की याद में
कोरेगांव में दलितों का संमेलन बुलाया और उन्हे वह विजय स्तंभ दिखाया, जिस पर उन 22 महार सैनिकों के नाम लिखे हैं,
जो कोरेगांव युद्ध में शहीद हुए थे. 1927
"अस्पृश्य कौन थे और वे
किस तरह अश्पृश्य बने" ग्रंथ प्रकाशित हुआ. 1948
2
विठ्ठल रामजी शिंदे स्मृति दिन
1948
ब्राह्मणजन ही शासकवर्ग है यह
निर्विवाद है. किसी भी व्यक्ति को दो कसौटी से आजमाया जा सकता है. जिसमें पहली है
लोगों की भावना और दूसरी प्रशासनिकतंत्र का अंकुश.... प्रथम कसौटी के लिये कुछ भी
शंका नहीं हो सकती. लोगों के रवैये को ध्यान में रखे तो, ब्राह्मण पवित्र है.
3
भारत की प्रथम महिला स्कुल की
स्थापक, अछुत कन्याओं की प्रथम स्कुल की
स्थापक तथा महात्मा जोतीबा फूले की पत्नी सावित्रीबाई फुले जन्म जयंती. 1831
बाबासाहब ने एल्फींस्टन कॉलेज
में प्रवेश लिया. 1908
एक ऐसा भी समय था जब ब्राह्मणों
का चरणामृत पीये बिना दलितवर्ग का व्यक्ति भोजन भी नहीं कर सकता था ..... ब्रिटीश
सरकार और उसके समानतामूलक न्याय क्षेत्र के कारण ब्राह्मणों के इन अधिकारों, छूआ-छुत और विशेषाधिकारों का अंत आया है.
उसके बावजूद भी..... शुद्र-अतिशुद्र वर्गो की नजर में ब्राह्मण आज भी सर्वोपरी है.
ब्राह्मणो के लिये आज भी एक संबोधन है, स्वामी अर्थात्
भगवान.
4
पी. के. आत्रे निर्मित फिल्म
"महात्मा फुले" का उद्घाटन 1954
इतिहास दर्शाता है कि
ब्राह्मणों के पास साथीदार के रुप में हमेंशा अन्य वर्ग ही रहे हैं, उन्हें वे शासकवर्ग का दर्जा उस शर्त पर
देने को तैयार थे कि वे सब उनके हाथ के नीचे सहकार से काम करे. प्राचीन और मध्ययुग
में उन्होंने क्षत्रिय लोगों के साथ मैत्री की थी ...... और अब ब्राह्मण ने वैश्य लोगों से हाथ मिलाया है.
5
"यदी बाबा ना होते" किताब के लेखक, बीसवीं
सदी के महान बौद्ध कर्मशील भदंत आनद कौशल्यायन जन्म जयंती 1905
दलितों की तरफ से बोलते हुए
मुझे यह कहने में थोडा सा भी संकोच नहीं है कि सार्वभौम और आजाद हिंद में वे जीवन
की विचारधारा और सामाजिक व्यवस्था के रुप में ब्राह्मणवाद के संपूर्ण विनाश की
अपेक्षा रखते हैं.
6
बाबासाहब ने मुंबई युनि. से
बी.ए. डीग्री तीसरे वर्ग में अर्जित की, उनके विषय थे
अंग्रेजी और फारसी. 1913
महाड में किसान सभा. 1939
मैं ये भी कहूँगा कि दलित
वर्गों को सामाजिक सुधार की जरा सी परवाह नहीं है. इस जहरीली व्यवस्था के कारण
उन्हें सहने पडते अपमान और गौरवभंग की तुलना में उनके नसीब में लिखे अभाव और गरीबी
तो कुछ भी नहीं है. रोटी नहीं परन्तु सम्मान ही उनकी मांग है.
7
संमति की उम्र के बारे में
विधेयक का उदेश्य बारह वर्ष से कम उम्र की पत्नी के साथ संभोग करते पति को सजा
करने का था. कोई भी समझदार मनुष्य, शर्म की भावना
रखता कोई भी मनुष्य इतने सीधे-सादे कदम का विरोध कर सकता है भला? फिर भी उसका विरोध हुआ था.
8
बौद्ध धर्म ध्वज दिन. सयाजीराव
ने बरोडा कॉलेज का भूमिपूजन किया 1879
ब्राह्मणवाद की विचारधारा के छ
मूलभूत सिद्धांत है,
(1) विविध वर्गो के बीच क्रमिक असमानता
(2) शुद्रों और अस्पृश्यों का संपूर्ण निःशस्त्रीकरण
(3) उनके शिक्षण पर संपूर्ण प्रतिबंध
(4) उनके लिये सत्ता और अधिकार स्थानों की प्राप्ति पर प्रतिबंध
(5) उन्हें जायदाद रखने पर प्रतिबंध
(6) स्त्रीओं की संपूर्ण गुलामी और दमन
9
गर्वनर जनरल काउन्सिल में डॉ. अंबेडकर
श्रम प्रधान 1942
ब्राह्मण ऐतिहासिक रुप से शासित
वर्गो (शुद्र और अस्पृश्यो) के जानी-दुश्मन रहे हैं. शुद्र-अस्पृश्य हिन्दु आबादी
का 80 प्रतिशत हिस्सा है. भारत के ये गुलामवर्गों का आम आदमी अगर आज इतना ज्यादा
पतित है, तुच्छ है, बिना
आशा और महत्वाकांक्षा का है, तो वह संपूर्णतौर पर
ब्राह्मणवाद और उसकी विचारधारा की वजह से हैं.
10
मुंबई में सभा 1938
परेल सभा में संविधान का प्रत
अर्पण 1951
कांग्रेसी राजकारणी फरियाद करते
हैं कि हिंद के लोगो का संपूर्ण निःशस्त्रीकरण करके अंग्रेज शासन करते हैं. परन्तु
वह भूल जाते है कि शुद्रों और अतिशुद्रों का निःशस्त्रीकरण तो ब्राह्मणों के
द्वारा जारी किये गये कायदे का नियम है.
11
कोल्हापुर में श्री शाहु
सत्यशोधक समाज की स्थापना 1911
अगर हिन्द के लोगों का विशाल
बहुमत आज बिना मनुष्यत्व का, नंपुसक,
शक्तिहीन लग रहा हैं, तो वह सामूहिक
निःशस्त्रीकरण की ब्राह्मणवादी नीति की देन है, जिसका वो
अकथ्य युगो से भोग बनता आ रहा है.
12
हैदराबाद के उस्मानिया विश्व
विधालय ने बाबासाहब को डॉक्टर ऑफ लिटरेचर की पदवी अर्पण की 1953
पुराना हिन्दु कानून ब्राह्मण को
धर्मगुरु के रुप में विशेष अधिकार देता था. अगर वह खून करने जैसा गुनाह करे तो भी
उसे फांसी नहीं दी जाती थी और इस्ट इंडिया कंपनी ने 1817 तक ब्राह्मणो को इस
विशेषाधिकार भोगने दिया.
13
ब्राह्मणों ने बिन-ब्राहमण
स्त्रीओं के कौमार्य भंग के अधिकार के लिये दावा करना शुरु कर दिया था. कालीकट के
झामोरी कुटुंब में और वैष्णव के वल्लभाचार्य संप्रदाय में यह प्रथा प्रचलित
थी..... ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस नैतिक अधःपतन को रोकने के लिये 1819 में
रेग्युलेशन (1819 का सातवां) पारित किया.
14
दलितों पर बेतहासा सितमों के
बाद डॉ. अंबेडकर मराठावाडा विधापीठ नामांतर हुआ 1994
15
बाबासाहब को मनमाड में दलितों
ने रूपए की थैली दी 1950
कालुपुर स्वामिनारायण मंदिर
प्रवेश सत्याग्रहीओं के लिये पटनी शेरी, घी कांटा में
सामूहिक रसोई 1948
शुद्रों, अस्पृश्यो और स्त्रीओं के लिये कानून का निर्माण
करनेवाले ब्राह्मणों का इतिहास दुनिया के अन्य बौध्दिक वर्गों की तुलना में सबसे
काला है. क्योंकि ब्राह्मणों ने जिस तरह भारत में अपने अशिक्षित देशवासीओं को
हमेशा के लिये अज्ञान और गरीब रखने की विचारधारा को ढूंढने के लिये अपनी बुध्दि के
साथ व्यभिचार किया ऐसा दुनिया में किसी बी बौध्दिक वर्ग ने नहीं किया.
16
प्रार्थना समाज के स्थापक
न्यायमूर्ति रानडे स्मृति दिन. बाबासाहब सूरत की यात्रा पर. 1943
रानडे को गांधी और जिन्हा से
बहेतर बताते हुए बाबासाहबने लिखा,
"If Ranade did not show splendour and dominance, he brought us no
catastrophe. If he had no superhuman qualities to use in the service of India,
India was saved from ruin by its abuse. If he was not a genius, he did not
display that perverse super-subtlety of intellect, and a temper of mind which
is fundamentally dishonest and which has sown the seeds of distrust and which
has made settlement so difficult of achievement."
17
दलितों के प्रश्नो को युनो में
प्रस्तुत करने के लिये ऑल इंडिया शेडयुल्ड कास्ट फेडरेशन ने प्रस्ताव पारित किया
1947
हर एक ब्राह्मण उसके बापदादा
द्वारा घोषित की गई ब्राह्मणवाद की विचारधारा को आज भी मानता है. यह हिन्दु समाज
में एक पराया तत्व है. जिस तरह जर्मन फ्रेंच के लिये, यहुदी बिनयहुदी के लिये या फिर गोरा नीग्रो
के लिये पराया है. उसी तरह अस्पृश्यों के लिये ब्राह्मण परदेशी है. ....
ये उनके लिये पराया ही नहीं है, बल्कि उनकी
तरफ दुश्मनी का भाव भी रखता है.
18
मुंबई विधान परिषद में
"लोकल बोर्डस कानून सुधार" विधेयक पर वक्तव्य 1938
ब्राह्मण मन को गुलाम बनाता है
और बनिया तन को. शासक वर्ग को मिलनेवाली इस लूट को दोनो बांट लेते है. हिन्दुओ की
कुल जनसंख्या में ब्राह्मणो की कुल जनसंख्या कितनी छोटी है यह नहीं जाननेवाले लोग कांग्रेस
की टिकिट पर ब्राह्मणों ने कितना प्रतिनिधित्व प्राप्त किया है उसे समझ नहीं सकते.
परन्तु जो जानते है उन्हे एहसास होगा कि अपनी संख्या के प्रमाण में ब्राह्मणों ने
प्रचंड प्रतिनिधित्व पाया है.
19
प्रथम गोलमेजी परिषद समाप्त
1931
"रानडे, गांधी और जिन्हा" बिषय पर बाबासाहब का
वक्तव्य 1943
कांग्रेस ने बनिया, वेपारी और जमीनदार जैसे मालदार वर्गों को
कितना प्रतिनिधित्व दिया है? यहाँ भी कांग्रेस की टिकट पर
बनिया, जमीनदार और वेपारीओ को मिला प्रतिनिधित्व प्रचंड है.
शासक वर्ग के सामने लडने के बजाय कांग्रेस ने वास्तव में शासक वर्ग को राजकीय
सत्ता हासिल करने में मदद की थी, इस वात में कोई शंका नहीं
है.
20
मुंबई विधान परिषद में
"गुनहगारों के अजमायशी समय विधेयक" पर वक्तव्य 1938
आखिर कांग्रेस ने सबसे अधिक
शिक्षित ब्राह्मणों को चुनावी प्रत्यासी के रुप में पसंद क्यों किया? क्यों कांग्रेस ने सबसे कम पढे
बिन-ब्राह्मण और अनुसूचित जातिओ के लोगों को ही अपने उम्मीदवार के रुप में पंसद
किया? इन प्रश्नो के लिये मेरे मन में एक ही उत्तर है,
कांग्रेस ने बिन-ब्राह्मणों को प्रधानमंडल की रचना करने से रोकने के
लिये ऐसा किया था.
21
22
वडोदरा राज्य में नौकरी के लिये
बाबासाहब का आगमन 1913
बनिया अपने पैसे को उत्पादन के
पीछे नहीं खर्च करता. बिनउत्पादक हेतु के लिये पैसा देकर ज्यादा से ज्यादा गरीबी
का सर्जन करता है. वह ब्याज पर ही जीता है. और उसके धर्म ने कहा है कि साहूकारी का
व्यवसाय मनु ने ही उसके लिये नक्की किया है. उसके इस दावे के समर्थन में आदेश देने
को सदैव तत्पर ब्राह्मण न्यायधीशों की मदद और आज्ञा से वह व्यापार करता है.
23
नेताजी सुभाषचन्द्र बोज जयंती
1897
जब-जब गुलामवर्गों ने धारासभाओं, प्रशासनिकतंत्र और सार्वजनिक सेवाओं में
आरक्षण की मांग की है, तब-तब
शासकवर्ग जोर से चिल्लाकर कहता है, "राष्ट्रवाद खतरे
में है".
24
"जनगणमन" को
राष्ट्रगीत का दर्जा 1950
खराब व्यक्ति अच्छे व्यक्ति से, अच्छा व्यक्ति बेहतर व्यक्ति से, और बेहतर व्यक्ति श्रेष्ठ व्यक्ति से आगे निकल जाये, इस तरह का कुछ भी नहीं होना चाहिये, ऐसे अमूर्त
सिध्दांत के साथ किसी भी का विरोध नहीं हो सकता, लेकिन जब
भारत के ऐतिहासिक संजोगो में हर बार जिस "श्रेष्ठ व्यक्ति" की पंसदगी
होती है वह शासक वर्ग का ही होता है और ऐसा जब व्यवहार में दिखाई देता है तो
उपर्युक्त दलील गले से नीचे नहीं उतरती.
25
अखिल भारतीय अस्पृश्य विधार्थी
परिषद को डॉ. अंबेडकर का संदेश 1954
"श्रेष्ठ" जर्मन
फ्रेंचों के लिये "श्रेष्ठ" हो सकता है? "श्रेष्ठ" तुर्क ग्रीक के लिये
श्रेष्ठ हो सकता है? क्या "श्रेष्ठ" पोलेन्डवासी
को यहुदी "श्रेष्ठ" मानेंगे? इन प्रश्नों के सही
उत्तर के लिये शायद ही कोई शंका हो सकती है. मनुष्य कोई यंत्र नहीं है. उसके मन
में कुछ लोगों के लिये सहानुभूति तो, कुछ लोगों के लिये
द्वेष का भाव होता है. इन बातों को ध्यान में रखते हुए शासक वर्ग का
"श्रेष्ठ" व्यक्ति गुलामवर्ग की दृष्टि में "कनिष्ट" साबित हो
सकता है.
26
प्रजासताक दिन 1950
मनृस्मृति का संदर्भ दर्शाता है
कि ब्राह्मणों, शासक वर्ग के
सभ्य और अग्रणी घटको ने, उनकी राजकीय सत्ता बुद्धि से नहीं -
बुद्धि पर किसी का एकाधिकार नहीं है - परन्तु निरंकुश सांप्रदायिकता से प्राप्त की
थी. मनुस्मृति के कानून के अनुसार राजा के धर्मगुरु तथा न्यायधीश यानि पुरोहित का
पद, उच्च अदालत का मुख्य न्यायधीश तथा न्यायमूर्ति का पद और
राजा के मंत्रीओ का होद्दा ये सभी स्थान ब्राह्मण के लिये ही आरक्षित थे.
27
साउथबरो समिति समक्ष बाबासाहब
की पेशकश 1919
शासकवर्ग इस बात के लिये सचेत
है कि वर्ग सिध्दांत, वर्ग हित,
वर्ग प्रश्न और वर्ग संघर्ष आधारित राजकीय आंदोलन उनकी मृत्यघंट बजा
सकता है. वे जानते है कि गुलामवर्ग को गलत रास्ते पर ले जाने और बेवकूफ बनाने का
असरकारक मार्ग है, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय एकता के जज्बातो
के साथ खिलवाड करना.
28
लाला लजपतराय जयंती 1856
29
रोहिदास जन्मदिन पर महात्मा
फूले की प्रथम कन्या स्कूल 1848
अन्य देशो में सामाजिक और
आर्थिक कारणों से वर्गों की रचना हुई थी. गुलामी और भूदासत्व का धर्म में कोई आधार
नहीं था. अस्पृश्यता हिन्दुओं को आर्थिक फायदा दे सकती है और देती है, फिर भी प्राथमिकरुप से वह धर्म आधारित है.
सामाजिक-आर्थिक हित पवित्र नहीं होते. यह समय और संजोगो के अनुसार बदलते रहते हैं.
गुलामी और भूदासत्व क्यों अदृश्य हो गये और अस्पृश्यता टिकी रही इसका यह विस्तृत
स्पष्टीकरण है.
30
गांधीजी की हत्या
बनिया इतिहास में बताया गया
सबसे बदतर परोपजीवी वर्ग है. उसके अंदर रहा अर्थोपार्जन का दुर्गुण संस्कार या
आत्मा से नष्ट नहीं होता. वह रोगों मे जश्न मनानेवाले आदमखोर जैसा है. आदमखोर और बनिये
में फर्क मात्र इतना है कि आदमखोर रोग उत्पन्न नहीं करता, जबकि बनिया रोग को उत्पन्न करता है.
31
"मूकनायक" पाक्षिक का
प्रारंभ 1920
अस्पृश्य कहते है कि वे ऐसे
हिन्दुराज्य में नहीं जीना चाहते, जिसका शासक
वर्ग बनिया और ब्राह्मण हो और उनके सिपाही के रुप में शुद्र वर्ग के हिन्दु हो. ये
सभी अस्पृश्यों के वंशपरंपरागत दुश्मन रहे है.
फरवरी - हिन्दुधर्म
1
जाति का दैवी आधार है. इसलिये
जाति में आरोपित पवित्रता और दिव्यता का नाश तुम्हें ही करना होगा. अंतिम पृथक्करण
में इसका मतलब है, आपको शास्त्रों
और वेदों की प्रमाणभूतता का नाश करना ही होगा.
2
पिता रामजी सुबेदार की मृत्यु, नौकरी का त्याग 1913
हिन्दु जिसे धर्म कहते है, वास्तव में वह एक कानून है अथवा जिसे कायदे
का स्वरुप दिया गया है ऐसी वर्गीय नीतिमत्ता से ज्यादा कुछ नहीं है.
3
यरवडा जेल में डॉ. अंबेडकर गांधी
से मिले 1932
जाति और वर्ण ऐसी बाते हैं, जिसके बारे में वेदों और स्मृतिओं ने चर्चा
की है, इसलिए हिन्दुओं की समझशक्ति को अपील करने से कुछ भी
असर नहीं होगा. जाति और वर्ण का सवाल है वहां तक शास्त्रों ने हिन्दुओं को इस सवाल
के बारे में निर्णय करने के लिये अपनी समझशक्ति का उपयोग करने की आज्ञा नहीं दी है.
इतना ही नहीं जाति और वर्ण में उसकी श्रध्दा के आधारों की बौध्दिक जांच करने का
कोई भी प्रसंग उपस्थित ना हो इसकी सावधानी भी रखी है.
4
"जनता" सामयिक का नाम बदलकर "प्रबुध्द
भारत" रखा गया 1956
मानसिक रुप से एक धर्मगुरु
बेवकूफ हो सकता है, शारीरिक रुप से
धर्मगुरु सीफीलीस या फिर गोनोरिया जैसे गंदे रोगों से पीडित हो सकता है. नैतिक रुप
से बर्बाद हुआ और फिर भी पवित्र विधिओं को कराने के लिये, हिन्दु
मंदिर के पवित्र गर्भगृह में प्रवेश करने के लिये और हिन्दु देव की पूजा करने के
लिये लायक गिना जाता है. हिन्दुओं में सब कुछ हो सकता है क्योंकि, एक धर्मगुरु के लिये धर्मगुरु की जाति में जन्म लेना पर्याप्त है.
5
चौरी चौरा कांड 1922
हिन्दु कोड बिल लोकसभा में पेश
किया गया 1951
अगर आप ऐसी दलील करेंगे कि, अगर सनातनी ब्राह्मण जाति को तोडने की
इच्छा रखनेवाले लोगों की तरफ झण्डा नहीं उठायेंगे तो, बिनसांप्रदायिक
ब्राह्मण यह काम करेंगे. यह सब, अलबत्ता बहुत अच्छा लगता है,
परन्तु इन सब में उस बात से आंखमिचौली की जाती है कि जाति प्रथा की
नाबूदी ब्राह्मण जाति को हानि पहुंचाये बिना नहीं रहेगी.
6
सयाजीराव गायकवाड की मृत्यु
1939
ब्राह्मण राजकीय सुधार के
आंदोलन और कई किस्सो में तो आर्थिक सुधार के भी अग्रदूत बने हैं, परन्तु जाति के अवरोधों को तोडने के लिये
बने लश्कर में केम्प-फॉलोवर्स के रुप में भी नजर में नहीं आते.
7
एस. के. बोले का मुंबई में
सार्वजनिक सम्मान 1932
मेरे मंतव्य के अनुसार
बिनसांप्रदायिक बाह्मणों और सनातनी बाह्मणों के बीच किसी भी तरह का फर्क करना
निरर्थक है. दोनों एकदूजे के स्वजन हैं. एक ही शरीर के दो कंधे हैं और एक के
अस्तित्व के लिये दूसरा लडने ही वाला है.
8
मुंबई महानगरपालिका में
बाबासाहब स्थापित स्वतंत्र मजदूर पक्ष को पांच बैठके मिली 1939
जिस तरह पोप बननेवाली व्यक्ति
को क्रांतिकारी बनेने की इच्छा नहीं होती, उसी तरह ब्राह्मण जाति में जन्म लेनेवाला व्यक्ति क्रांतिकारी बनने की
बहुत कम इच्छा रखता है. हकीकत में सामाजिक सुधार के बारे में ब्राह्मण से
क्रांतिकारी होने की अपेक्षा रखना यह तो लेस्ली के शब्दों में कहे तो, सभी भूरी आंखोवाले बच्चों की हत्या कराने का कानून ब्रिटीश संसद पास करेगी
ऐसी अपेक्षा रखने जितना ही बेकार है.
9
देश के प्रथम ट्रेड युनियन "धी बोम्बे हेन्ड मिल्स
एसोसिएशन" (बीएचएमए) के स्थापक (1884), प्रथम ट्रेड युनियन साप्ताहिक "दिनबंधु" (1880-1897) के तंत्री, देश के ट्रेड युनियन आंदोलन
के पितामह नारायण मेघाजी लोखंडे का स्मृति दिन 1897
इस बात को कहने में थोडी सी भी
अतिशयोक्ति नहीं होगी कि देश का समग्र भावि उसके बौध्दिक वर्ग पर निर्भर है. अगर
बौध्दिक वर्ग प्रामाणिक, स्वतंत्र और
निःस्वार्थी हो, तो आपातकाल के समय कदम उठाने और योग्य
नेतृत्व लेने के लिये हम उस पर भरोसा रख सकते है. भारत का बौध्दिक वर्ग ब्राह्मण
जाति का दूसरा नाम है, ये जानकर दया आयेगी.
10
गुलामी कभी भी अनिवार्य नहीं थी, परन्तु अस्पृश्यता अनिवार्य थी. एक व्यक्ति
को छूट है दूसरे व्यक्ति को गुलाम बनाने की. अगर वह इस तरह की इच्छा ना रखता हो तो
ऐसा करने के लिये उस पर कोई दबाव नहीं होता. परन्तु अस्पृश्य के पास कोई भी विकल्प
नहीं होता. एक बार अस्पृश्य के रुप में जन्म लिया ही है तो, उसे
एक अश्पृश्य की सभी असमर्थताओं का भोग बनना पडता है.
11
महात्मा गांधी ने "हरिजन" पत्रीका का प्रारंभ किया 1933
12
मंदिर प्रवेश विधेयक के विरोध
में निवेदन 1933
मनमाड में दलित रेलवे
कर्मचारीओं की परिषद में बाबासाहब ने 20,000 लोगों को संबोधित किया 1938
समझशक्ति और नैतिकता एक समाज
सुधारक के तरकस के दो सबसे शक्तिशाली शस्त्र है. उनके पास से इन शस्त्रों को छिन
लेने का अर्थ है उन्हे असमर्थ बनाना. जाति और समझशक्ति एक दूसरे से विरुद्ध है ऐसा
सोचने के लिए भी लोग मुक्त नहीं है, तब आप किस तरह
जाति को तोड सकोगे? अगर आप व्यवस्था को तोडना चाहते हो,
तो आप को समझशक्ति और नैतिकता का इनकार करनेवालें वेदों और
शास्त्रों में डाइनेमाइट लगाना होगा. आप को श्रृति और स्मृति के धर्मों का नाश
करना होगा.
13
मुंबई विधान परिषद में “ग्राम पंचायत विधेयक” पर बाबासाहब का वक्तव्य 1933
मनु के बनाये तीन नियमों को हर
हिन्दु को उसके आचरण में बुनना ही पडेगा. हिन्दुओं को वेद, स्मृति या सदाचार का ही अनुसरण करना होगा.
सदाचार का अर्थ "अच्छे कृत्य या फिर अच्छे
मनुष्यों के कृत्य" नहीं है, इसका अर्थ है प्राचीन रिवाज, अच्छा या खराब.
14
हिन्दु कोड बिल पर संसद में
वक्तव्य 1949
हिन्दु धर्म क्या है? क्या वह सिध्दांतो का समूह है या फिर
नियमों की संहिता है? वेदों और स्मृतिओं में संग्रहित हिन्दु
धर्म यज्ञ, समाज, राजनीति और स्वच्छता
से जुडे और एक दूसरे में घूले हुए नियम और नियमों के ढेर के सिवा कुछ नहीं है.
15
उर्दु शायर मिर्जा गालिब का
मृत्यु दिन 1839
हिन्दु जिसे धर्म कहते है वह
आज्ञाओं और पाबंदियों के झुंड के सिवा दूसरा कुछ भी नहीं है. आध्यात्मिक सिध्दांतो
के अर्थ में, सचमुच वैश्विक
और सभी वंशो, सभी राष्ट्रों को सभी युग में लागु पडे ऐसा
धर्म उसमें मिलता नहीं है और अगर ऐसा धर्म मिल जाय तो भी वह एक हिन्दु के जीवन का
संचालन करनेवाला हिस्सा नहीं बनता.
16
दिल्ली में शाहूजी महाराज के
अध्यक्षपद पर तीसरी अखिल भारतीय बहिष्कृत परिषद 1921
जब मैं नियमो के धर्म का विरोध
करता हूँ, तब धर्म की कोई
भी जरुरत नहीं रहती ऐसा अभिप्राय मैं रखता हूँ ऐसी गलतफहमी मेरे लिये नहीं होनी
चाहिये. बल्कि मैं बर्क के साथ संमत हूँ, जब वे कहते है कि
" सच्चा धर्म समाज की नींव है, इस नींव पर सभी नागरिकों,
सरकारें और उनके नियम टिके हैं."
17
राम को जूता मारनेवाले पेरियार
रामास्वामी की उपस्थिति में मद्रास में स्वाभिमान संघ की प्रथम परिषद 1929
हिन्दुओ में धर्मगुरु पद नाबूद
हो तो ये बेहतर होगा. परन्तु ऐसा करना नामुमकिन लगता है, इसलिए धर्मगुरुपद कम से कम, वंशपरंपरागत नहीं होना चाहिये.
18
मुंबई विधानसभा परिषद में “फटके की सजा” पर बाबासाहब का वक्तव्य 1933
नौकादल का विद्रोह 1946
19
छत्रपति शिवाजी महाराज जन्म
जयंती
कानून में ऐसा प्रावधान होना
चाहिये कि कोई भी हिन्दु जब तक राज्य के द्वारा ली गई परीक्षा पास ना करे और
धार्मिक विधि करने की छुट देनेवाली सनद राज्य से पास प्राप्त ना करे तब तक वह
धर्मगुरु नहीं कहा जा सकता. सनद ना रखनेवाले कोई भी धर्मगुरु दवारा होनेवाली
धार्मिक विधि कानून की नजर में प्रमाणभूत नहीं कही जायेगी और धर्मगुरु के रुप में
बैठने की जिसके पास सनद ना हो ऐसे व्यक्ति को सजा करनी चाहिये.
20
महात्मा ज्योतिबा फूले जयंती
1827
धर्मगुरु राज्य का सेवक होना
चाहिये. अन्य नागरिकों की तरह देश के सामान्य कानून के आधीन होने के अलावा उसके
चरित्र, मान्यताओं और पूजा के बारे में वह
राज्य के द्वारा की जाती शिस्तभंग की कारवाई के आधीन होना चाहिये.
21
मुंबई विधान परिषद में “बजट” पर वक्तव्य 1928 1939
ICS (इन्डीयन सिविल सर्विस) की तरह, धर्मगुरुओं की संख्या भी राज्य की जरुरत के
अनुसार कानून दवारा मर्यादित होनी चाहिये. किसी को यह उदाम लगेगा, परन्तु मेरे लिये इसमें कुछ भी क्रांतिकारी नहीं है.
22
कस्तूरबा गांधी स्मृति दिन 1944
धर्मगुरु का व्यवसाय ही एक ऐसा
व्यवसाय है, जिसमें निपुणता
की ज़रुरत नहीं होती. हिन्दु धर्मगुरुओं का व्यवसाय ही एक मात्र ऐसा व्यवसाय है,
जो कानून संहिता के आधीन नहीं है.
23
संत गाडगे बाबा जयंती 1876
मौलाना आजाद स्मृति दिन 1958
रांटीला-लवाणा (बनासकांठा) के
दलितों की जमीन जंगल विभाग ने हड़प ली 1984
24
मुंबई विधान परिषद में “बजट” पर बाबासाहब का वक्तव्य 1927
ब्राह्मणवाद एक ऐसा जहर है
जिसने हिन्दु धर्म को खराब कर दिया है. अगर तुम ब्राह्मणवाद को खत्म करोगे तो
हिन्दु धर्म को बचाने में सफल रहोगे.
25
अहमदाबाद में महार युवक पर
अत्याचार, हरिजन सेवक संघ
और मजुर महाजन संघ के अग्रणी केशवजी रणछोडजी वाघेला ने डॉ. अंबेडकर को पत्र लिखा
1938
26
बाबासाहब की इन्डिपेन्डन्ट लेबर
पार्टी (आई. एल. पी.) का हेडक्वार्टर बनाने के लिये सफाई कामदारो ने की रु. 1001
की सहाय 1939
निःशंकरुप से जाति मुख्यत: हिन्दुओं की सांस है, परन्तु हिन्दुओ ने समग्र हवा को प्रदूषित कर दिया है और शीख, मुस्लिम और ख्रिस्ती सहित सभी को संक्रमण लगा है.
27
गोलमेजी परिषद के बाद मुंबई में
बाबासाहब ने सभा संबोधित की 1931
स्वराज रक्षण से भी अधिक महत्व
का प्रश्न है स्वराज में हिन्दुओ का रक्षण करना. मेरे मत अनुसार जब हिन्दु समाज
जातिवहिन समाज बनेगा तभी ही वह खुद का रक्षण करने के लिये जरुरी ताकत प्राप्त करने
की आशा रख सकता है.
28
ब्राह्मणों का चरणामृत ग्रहण
करने के बाद पदग्रहण करनेवाले देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद का
स्मृति दिन 1963
हकीकत में आदर्श हिन्दु अपने दर
में रहते और अन्य लोगों के साथ किसी भी तरह का संपर्क रखने से इन्कार करनेवाले एक
चूहे जैसा ही है.
29
श्री गांधी धनिक वर्ग को दुखी
नहीं करना चाहते. वह तो उनके विरुद्ध किये जा रहे आंदोलन के भी विरोधी है. आर्थिक
समानता के बारे में उनमें कोई रूझान नहीं है. धनिक वर्ग का उल्लेख करते हुए
उन्होंने कहा कि सोने का अंडा देनेवाली मुर्गी को वह मारना नहीं चाहते.
मार्च - जाति प्रथा
1
भारत में जाति का अर्थ है, नियत और निश्चित इकाईयों में बंटे आबादी के
ऐसे कृत्रिम टुकडें जिन्हे एक जाति में ही
विवाह करने के रिवाज के जरिये एक दूसरे में घुलने नहीं दिया गया, ...... इस तरह ..... एक ही जाति में विवाह ये ही जाति का एकमात्र विशिष्ट
चरित्र है.
2
मुंबई विधान परिषद में "बजट" पर बाबासहब का वक्तव्य 1938
ब्राह्मण बहुत ज्यादा बातो में
गुनहगार होंगे, ऐसा में मानता हूँ और हिम्मतपुर्वक कहता हूँ कि वे थे, लेकिन बिन-ब्राह्मणों पर जाति व्यवस्था
थोपना यह उनके बश की बात नहीं थी.
3
नासिक कालाराम मंदिर प्रवेश
सत्याग्रह 1930
एक ही जाति में विवाह या संबंध
की व्यवस्था हिन्दु समाज में प्रचलित थी. यह व्यवस्था ब्राह्मण जाति से उत्पन्न
हूई, इसी कारण सभी बिनब्राह्मण जातिओं ने
अंतःकरणपूर्वक उसका अनुकरण किया था और अंत में आंतरिक लग्न प्रथा रखनेवाली जातियां
बनी थी.
4
मुंबई में जी. आई. पी. रेल्वे
क्वाटर्स में बाबासाहब की सभा 1933
5
गांधी-ईरविन करार, जिसमें कांग्रेस की ओर से गांधीजी ने भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु की
फांसी को संमति दी 1931
मुंबई विधान परिषद में "तमाकु कर कानून विधेयक" पर बाबासाहब का वक्तव्य 1938
मराठा देश (महाराष्ट्र) में
पेशवा शासन के तहत, अगर कोई हिन्दु
सार्वजिनक मार्ग से निकलता हो, तो अस्पृश्य को वहां से जाने
की इजाजत नहीं थी, इस डर से कि कहीं उसकी परछाई हिन्दु को प्रदूषित ना कर दे.
6
पाटण में पानी विभाग योजना का
सयाजीराव ने उद्घाटन किया 1911
सोलापुर में सभा 1932
जाति आर्थिक कार्यक्षमता में
तबदील नहीं हो सकती. जाति वंश को सुधार नहीं सकती, ना कभी सुधारा है. अलबत्ता जाति ने एक काम
जरूर किया है. उसने हिन्दुओं को संपुर्णरुप से असंगठित और निराश बनाया है.
7
भावनगर में शाहजी महाराज के
अध्यक्षपद पर आर्य समाज परिषद 1920
मुंबई विधान परिषद में "न्याय तंत्र की स्वायत्तता" पर बाबासाहब का वक्तव्य 1938
अगर कोई भी समाज में किसी भी
समय सत्ता और प्रभुत्व का स्रोत सामाजिक और धार्मिक हो तो, सामाजिक-धार्मिक सुधार को अनिवार्य गिनना
चाहिये.
8
रशिया में क्रांति का प्रारंभ
1971
डॉ. अंबेडकर को संबोधित पत्र
में जगजीववनराम ने कांग्रेस से हुई अपनी निजी मीटिंग का स्वीकार किया 1937
कुछ लोगों ने जाति व्यवस्था के
बचाव में जीवविज्ञान की मदद से खाई खोदकर किल्लाबंदी की है. ........ कहा जाता है
कि शुद्ध वंश कही भी अस्तित्व में नहीं है और दुनिया के सभी भागों में वंशो का
मिश्रण हुआ है.
9
पंजाब का ब्राह्मण और पंजाब का
चमार वंशीय रुप से एक ही मूल के है ......... जाति व्यवस्था में वंशीय विभाजन नहीं
होता. जाति व्यवस्था एक ही वंश के लोगों का सामाजिक विभाजन है. मनुष्य और प्राणीओं
के बीच निःसंकोचरुप से इतना अधिक गहरा अंतर है कि वैज्ञानिक मनुष्य और प्राणी को
दो अलग प्रजाति गिनते है, परन्तु जो
वैज्ञानिक वंश की शुद्धता में मानते है वे भी आग्रहपूर्वक नहीं कह सकते कि अलग वंश
मनुष्य की अलग प्रजातियां है.
10
सावित्रीबाई फुले पुण्यतिथि
1987
मुंबई विधान परिषद में "दारुबंधी" पर बाबासहब का वक्तव्य 1927
सुप्रजन के लिये जाति व्यवस्था
की रचना हुई थी, ऐसी दलील तो
अभी के हिन्दुओ में वंशपरंपरागत गुणो से लैस उस ज्ञान का आरोपण करने के बराबर है,
जो ज्ञान आधुनिक वैज्ञानिकों के पास भी नहीं है.
11
सीडनहेम कॉलेज में प्रोफेसर की
नौकरी का त्याग 1920
दलितो के अलग मताधिकार दिलाने
के निर्णय के खिलाफ आमरणांत उपवास की गांधीजी की धमकी 1932
12
मुंबई विधान परिषद में "शिक्षण के लिये ग्रान्ट" विषय पर वक्तव्य 1927
13
अगर जाति सुप्रजनन का उदेश्य
रखती है, तो उसे कैसे वंश का मनुष्य पैदा करना
चाहिये था? शारीरिक रुप से हिन्दु थर्ड रेईट लोग है. वे बौने
कद और बिना ताकत के पिग्मियों और ठिगनों के वंश के है, जिसका नव दसांश हिस्सा
लश्करी सेवा के लिये अयोग्य गिना गया है, ऐसा यह एक देश है.
14
कार्ल मार्कस स्मृति दिन 1883
सौ प्रथम तो यह स्वीकार करना
होगा कि हिन्दु समाज एक दंतकथा है. हिन्दु नाम स्वंय एक विदेशी नाम है. मुस्लिमों
ने देशी लोगों से अपनी पहचान अलग करने के लिये ये नाम दिया था. मुस्लिम आक्रमण के
पहले संस्कृत साहित्य में ऐसा कोई शब्द नहीं था.
15
कांसीराम जन्मदिन 1934
प्रथम महागुजरात दलित परिषद. "राज्यों और लघुमतीओं" ग्रंथ प्रसिद्ध हुआ 1941
वैसे हिन्दु समाज कोई अस्तित्व
नहीं रखता. वह जातिओं का झुंड मात्र है.
हर जाति उसके अस्तित्व के लिये सभान है. किसी भी तरह टिके रहने में ही उसके
अस्तित्व का सर्वस्व समाया है. दूसरी जातियां मिलकर भी एक संघ की रचना नहीं कर
सकती. एक जाति को किसी भी तरह का ऐसा कोई लगाव नहीं होता कि वे दूसरी जातिओ से
जुडी है, सिवाय हिन्दु-मुस्लिम दंगो के दौरान.
16
संविधान सभा की रचना करने के
लिये केबिनेट मिशन की सूचना 1946
समांतर प्रवृत्तियां चाहे एक
जैसी ही क्यों ना हो, मनुष्य को एक
समाज में जोडने के लिये पर्याप्त नहीं है. यह बात इस हकीकत से सिद्ध होती है कि
हिन्दुओ में विविध जातियों द्वारा मनाये जाते त्यौहार एक समान है, मगर विविध जातियों के द्वारा मनाये जाते त्यौहारों के समांतर उत्सवों ने
उन्हे एक सुग्रथित इकाई में नहीं जोडा.
17
सयाजीराव गायकवाड जन्म जयंती
1862,
शाहु महाराज का राज्याभिषेक
1884,
महाड में दलितो की कानूनी जीत
1936
मुस्लिमो ने तलवार के जोर पर उनका
धर्म फैलाया ऐसी आलोचना हिन्दु करते हैं. अलग मत रखनेवाले लोगों के लिये ख्रिस्ती
धर्म के द्वारा स्थापित न्यायसभा की हिन्दु हंसी उडाते हैं. परन्तु सच कहे तो, कौन बेहतर है और हमारे सम्मान के अधिकारी
है. अनिच्छुक व्यक्तिओं के मोक्ष के लिये उनका गला काटना जरुरी समझनेवाले मुस्लिम
और ख्रिस्ती? या फिर हिन्दु, जो प्रकाश
नहीं फैलायेंगे, जो दूसरो को अंधकार में रखने की कोशिश
करेंगे, जो उनकी बौद्धिक और सामाजिक विरासत को अपनी मानसिकता
का हिस्सा बनाने की इच्छा रखनेवाले लोगों के साथ उसे बांटने के लिये सहमत नहीं
होंगे?
18
डॉ. अंबेडकर ने बुद्ध मूर्ति की
स्थापना की, चक्की पगा,
आगरा 1956
19
मुंबई में सयाजीराव के
अध्यक्षपद पर अखिल भारतीय अस्पृश्यता निवारण परिषद 1918
हिन्दु समाज जातियों का समूह
होने से और हर एक जाति एक गतिहीन संगठन होने से यहाँ धर्म परिवर्तन करनेवाले
व्यक्ति के लिये कोई स्थान नहीं है. इस तरह जाति ने हिन्दुओं के विकसित होने में
और अन्य धार्मिक समुदायों को अपने अंदर समाविष्ट करने पर रोक लगाई है. जब तक जाति
का अस्तित्व है, तब तक हिन्दु
धर्म मिशनरी धर्म नहीं बन सकता और "शुद्धि" मुर्खतापुर्ण और निरर्थक बनी
रहेगी.
20
चवदार तालाब सत्याग्रह 1927,
समता सैनिक दल की स्थापना 1927
मगर ऐसा मान भी ले कि, ख्रिस्ती मिशनरी इन आदिवासीओं के लिये जो
कुछ कर रहे है, ऐसा करने की हिन्दु को इच्छा है, तो क्या वह ऐसा कर सकता है? मैं कहता हूँ कि नहीं. आदिवासीओं
को सभ्य बनाना यानि उन्हे अपना बनाना, उनके बीच रहना और
भ्रातृत्व रखना, संक्षिप्त में उन्हें प्यार करना. ऐसा करना
एक हिन्दु के लिये कैसे मुमकिन है?
21
हिन्दुओं के आचार पर जाति का
असर निंदापात्र है. जाति ने लोगों के जोश को खत्म कर दिया है. जाति ने सार्वजनिक
धर्मार्थ की भावना को खत्म कर दिया है. जाति ने सार्वजनिक अभिप्राय को असंभवित बना
दिया है. हिन्दु के लिए लोग यानि उसकी जाति. भारत में समाज सुधार का मार्ग स्वर्ग
के मार्ग की तरह कांटों से भरा है.
22
सयाजीराव गायकवाड ने पुणे के
अहल्याश्रम की मुलाकात ली 1933
जाति एक ऐसा भयानक प्राणी है जो
आपके मार्ग के आडे आता है. जब तक आप इस भयानक प्राणी को खत्म नहीं करोगे, तब तक आप आर्थिक सुधार नहीं कर सकते.
23
अस्पृश्यता निर्मूलन के लिये
अखिल भारतीय परिषद को मुंबई में सयाजीराव का संबोधन 1918
भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु अमर
शहीदों का शहादत दिन 1931
अगर हिन्दु भूखा मरता हुआ दिखाई
देता है, फिर भी ऐसे व्यवसाय वह नहीं अपनाता जो
उसकी जाति को सोंपा गया ना हो, तो इसकी वजह जातिप्रथा में
ढुंढनी होगी.
24
मंदिर प्रवेश विधेयक की
केन्द्रिय धारागृह में प्रस्तुती और उसकी दफनविधी 1933
आज देश में दिखाई देनेवाली
ज्यादातर बेकारी की सीधी वजह व्यवसायों की पुनर्व्यवस्था का इन्कार करनेवाली जाति
प्रथा थी.
25
फिरोजशाह महेता के बारे में "बोम्बे क्रोनीकल" में बाबासाहब का लेख 1916
26
मुस्लिमबहुल प्रदेश को स्वंतत्र
राज्य के रुप में घोषित करने के लिये लाहोर अधिवेशन में मुस्लिम लीग का प्रस्ताव
1945,
बांग्लादेश स्वतंत्रता दिन 1972
अगर आप जाति का स्वीकार नहीं
करते हो, तो आपका आदर्श समाज क्या है, ये प्रश्न अवश्य पूछना चाहिये. अगर आप मुझे पूछे, तो
मेरा आर्दश होगा स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व आधारित समाज.
27
सीख-सीख और मुस्लिम-मुस्लिम के
बीच में एक ऐसा सामाजिक सीमेन्ट है, जो भाईचारे को
पैदा करता है. हिन्दुओं के बीच ऐसा कोई सीमेन्ट नहीं है और एक हिन्दु दूसरे हिन्दु
को भाई नहीं मानता.
28
सामाजिक दमन की तुलना में
राजकीय दमन कुछ भी नहीं है और समाज के सामने आनेवाले सुधारक सरकार और राजकरणी से
अधिक हिंमतवान है.
29
आजवा तालाब का पानी वडोदरा शहेर
को पहुंचाने के लिये व्यवस्था का प्रांरभ 1892
हिन्दु जाति में मानते है, इस वजह से नहीं कि ये अमानवीय या फिर
मतिभ्रम है. ये जाति में मानते है, क्योकि ये अंत्यत धार्मिक
है.... (यानि) जाति को माननेवाले लोग दुश्मन नहीं है. बल्कि, जाति ही धर्म है,
ऐसा उन्हे सीखानेवाले शास्त्र (दुश्मन) है.
30
स्टेफर्ड क्रिप्स से साथ डॉ. अंबेडकर
की मुलाकात
संविधान की रचना करते समय
सामाजिक ढांचे का ध्यान हमेंशा रखना चाहिये. सामाजिक ढांचे के साथ राजकीय ढांचा
जुडना ही चाहिये. सामाजिक ताकतों की प्रक्रिया सिर्फ सामाजिक क्षेत्र तक ही
मर्यादित नहीं है.
31
इस सभ्यता को हम दूसरा क्या कह
सकते है, जिसने लोगों का एक ऐसा समूह बनाया,
जिन्हे जीवन निर्वाह के लिये स्वीकृत मार्ग के रुप में गुनाहखोरी
अपनाने के लिये सीखाया गया, दूसरे समूह को सभ्यता के बीचोबीच
उनकी आदिम जंगलियत की पराकाष्टा में जीने के लिये छोड दिया है और तीसरा समूह है,
जिसके साथ मानव व्यवहार से अलिप्त इकाई सा बर्ताव किया जाता है और
जिसका स्पर्श किसी को भी अपवित्र बनाने के लिये पर्याप्त है?
अप्रैल – व्यक्ति विशेष
1
लक्ष्मीबाई के साथ शाहु महाराज
का विवाह 1891
बारबार जो आक्षेप होता है वैसे
बुद्ध ने अहिंसा के उपदेश से हिन्दु समाज को निर्बल नहीं बनाया. हिन्दु समाज के
पराजय के लिये ही नहीं उसकी अधोगति के लिये भी चातुर्वण्य सिद्धांत जिम्मेदार है.
2
रामराज्य चातुर्वण्य आधारित
राज्य था. एक राजा के रुप में चातुर्वण्य निभाने के लिये राम बाध्य थे. इसलिये
अपने वर्ग की मर्यादा का उल्लंघन करके ब्राह्मण बनने जा रहे शुद्र की हत्या करना
ये राम का कर्तव्य था.
3
"बहिष्कृत भारत" पाक्षिक का प्रारंभ 1927
शिवाजी को हिन्दु राष्ट्र की
स्थापना करने की प्रेरणा जिन्होने दी ऐसा कहा जाता है, ऐसे महाराष्ट्र के ब्राह्मण संत रामदास
मराठी पध में रचित उनके सामाजिक, राजकीय, धार्मिक ग्रंथ में हिन्दुओं को संबोधित करते हुए पूछते है, कोई अंत्यज पंडित हो इस कारण क्या हम उसे अपने गुरु के रुप में स्वीकार कर
सकते है, और उसका उत्तर नकार में देते है.
4
मुंबई विधानसभा में अलग कर्णाटक
राज्य के रचना के बारे में वक्तव्य 1938
लोगों का कार्य उनके दिमाग में शास्त्रों
द्वारा ठुंसी गई मान्याताओं का परिणाम है. और लोग तब तक अपना आचरण नहीं बदलेंगे, जब तक वे आचरण की बुनियाद के समान
शास्त्रों की पवित्रता में विश्वास करना छोडेंगे नहीं. इस बात का एहसास अस्पृश्यता
नाबूदी के लिये काम करनेवाले महात्मा गांधी जैसे समाज सुधारको को होगा ऐसा नहीं
लगता.
5
केबिनेट मिशन के समक्ष
प्रस्तुती 1946
हिन्दु धर्म के संदर्भ में वे
(प्रो. एस. राधाकृष्णन) कहते है कि, "आध्यात्मिक
विचार और अस्तित्व के चार से पांच सहस्त्राब्दिओं से ज्यादा समय के दबाव और चिंता
के सामने हिन्दुधर्म चट्टान की तरह खडा है" .......
मुझे लगता है कि सवाल ये नहीं है कि एक समुदाय जी रहा है या मर रहा है. सवाल ये है
कि वह कौन सी भूमिका पर जी रहा है.
6
शाहु महाराज स्मृति दिन 1922
आर्थिक क्रांति के लिये
सर्वहारा को उतेजित करने के लिये कार्ल मार्कस ने कहा है, "तुम्हे जंजीरो के अलावा कुछ भी नहीं
गवाना है", परन्तु एक को ज्यादा और दूसरे को कम मिले इस
तरह विविध जातिओं में सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक अधिकारों
को बांटने की चालाकी के कारण जातिव्यवस्था के सामने हिन्दुओ को उत्तेजित करने का
कार्ल मार्कस का सूत्र निरुपयोगी सिद्ध हुआ.
7
गुजराती साहित्य परिषद सभा को
सयाजीराव का संबोधन 1912
संतो की बात करें तो यह कुबुल
करना चाहिये कि पोथी पंडितो के उपदेश से ज्यादा संतो के उपदेश चाहे कितने भी अलग
और उर्ध्वगामी रहे होंगे तो भी यह दुःखदायी रुप से बिनअसरकारक रहे हैं. दो कारणो
से यह बिनअसरकारक रहे हैं. प्रथम तो यह कि किसी भी संत ने कभी जातिप्रथा पर प्रहार
नहीं किया. बल्कि वे तो जाति व्यवस्था के चुस्त हिमायती थे.
8
9
आज़मगढ में जन्मे, भुमिहार ब्राह्मण, हिन्दी
प्रवासी साहित्य के पिता, अमर कृति "वोल्गा से गंगा" के लेखक महापंडित
राहुल सांकृत्यायन की जन्म जयंती 1893
अस्पृश्यों को स्पर्श करने की
और उनके साथ भोजन करने की हिम्मत दिखानेवाले वीरनायक के रुप में अभी
"धर्मात्मा" फिल्म में दिखाई देते एकनाथ ने भी इसलिये ऐसा नहीं किया था
कि वे जाति और अस्पृश्यता का विरोध कर रहे थे, परन्तु इसलिये किया था कि उन्हे लगता था कि
ऐसा करने से होनेवाली भ्रष्टता गंगा नदी के पवित्र पानी में स्नान करने पर मीट
जायेगी.
10
सयाजीराव बिहार क्लब की स्थापना
1899
ब्राह्मण के रुप में अपनी
प्रतिष्ठा से ज्ञानदेव इतने भावनापूर्वक जुडे थे कि जब पैठण के ब्राह्मणों ने उन्हे
उनके परगने में शामिल नहीं
किया, तब ब्राह्मण बिरादरी के द्वारा स्वीकृत ब्राह्मण की
प्रतिष्ठा पाने के लिये ज्ञानदेव ने आकाश-पाताल एक कर दिया.
11
ज्योतिबा को महात्मा की पदवी, मुंबई में सम्मान 1888
मुंबई के मेघवाल समाज की तरफ से
डॉ. अंबेडकर का सार्वजनिक सम्मान 1932
मैं भारपूर्वक कहता हूँ कि अगर
मैं श्री महात्मा गांधी और झिन्हा को धिक्कारता हूँ और मैं उन्हे धिक्कारता नहीं
हूँ, नापसंद करता हूँ, इसलिये कि मैं भारत को विशेषरुप से चाहता हूँ. यह एक देशभक्त की सच्ची
श्रद्धा है. मुझे आशा है कि एक दिन मेरे देशवासी यह बात जरुर समझेंगे कि मनुष्यों
की अपेक्षा देश महान होता है. और श्री गांधी या फिर श्री झिन्हा की भक्ति और भारत
की सेवा दोनों भिन्न और बिल्कुल अलग बातें है और एक-दूसरे की विरोधी भी हो सकती है.
12
एक महान मनुष्य को सामाजिक
उदेश्यों की गतिशीलता से प्रेरित होना चाहिये और उसे समाज के दंडक और सफाई
कर्मचारी के रुप में कार्य करना चाहिये.
13
अलग मताधिकार के विरोध में
गांधीजी की आमरणांत उपवास की धमकी के बारे में सरकार का प्रत्युत्तर. जलियावाला
बाग हत्याकांड में 1000 से ज्यादा भारतवासीओं की हत्या 1932
नित्से के बहुत समय पहले जन्मे
मनु के धर्मोपदेश को नित्से ने प्रबोधित किया था. हिन्दु धर्म स्वतंत्रता, समानता, बंधुता की
स्थापना नहीं करना चाहता. यह धर्मादेश सुपरमेन ब्राह्मण की बाकी सारे हिन्दु समाज द्वारा भक्ति की घोषणा करता है.
14
बाबासाहब का जन्म 1891
बहुजन समाज पक्ष की स्थापना
1984
15
डॉ. शारदा कबीर के साथ बाबासाहब
का विवाह, 1948
अमृतसर के सुवर्ण मंदिर में
बाबासाहब को पाघडी पहनाई गई 1937
16
रानडे में किसी भी तरह का आडंबर
नहीं था. एक अंतिमवादी की भूमिका निभाकर सस्ती अपकीर्ति पाने का उन्होने इन्कार
किया था. लोगों की देशभक्ति की भावनाओं के साथ खेलकर और उसका दुरुपयोग करके उन्हे
गलत राह दिखाने का भी उन्हो ने इन्कार कर दिया.
17
अस्पृश्यता की नाबूदी के लिये
हिन्दु महासभा को कांग्रेस का अनुरोध 1923
वीरनायक और नायकपूजा भारत के
राजकीय जीवन की बदकिस्मती नहीं बल्कि कठोर वास्तविकता है. व्यक्तिपूजा अनुयायीओं
को भ्रष्ट करती है और देश के लिये खतरनाक है .... क्योकि आज के समय में अखबारों की
मदद से महापुरुषो का उत्पादन करना सरल है.
18
राजकोट राज्य की राजकीय सुधार
समिति में दलितो का समावेश नहीं होने से डॉ. अंबेडकरने ठाकोर साहेब से मुलाकात की
1939
अस्पृश्यता से शर्माना तो दूर, हिन्दु तो उसको बचाने की कोशिश करते है.
उनके बचाव की दलील इस प्रकार है कि, दूसरे देशो की तरह
हिन्दुओ ने गुलामी को मान्यता नहीं दी और किसी भी संजोग में अस्पृश्यता गुलामी से
बदतर नहीं है. दूसरा कोई नहीं परन्तु लाला लजपतराय जैसे व्यक्ति इस दलील उनके
पुस्तक "दुःखी भारत" में करते है.
19
कल्याण में रोहिदास तरुण सुधारक
संघ की महिला विभाग का उदघाटन 1942
1918 में जब बिनब्राह्मणों और
पिछडे वर्गों ने धारासभा में अलग प्रतिनिधित्व के लिये मोरचा निकाला था. तब
सोलापुर में आयोजित एक सार्वजिनक सभा में तिलक ने कहा कि, उन्हे यह समझ नहीं आता कि तेली, तंबोली, धोबी (बिनब्राह्मण और पिछडे वर्गों के लिये
उनका यह शब्द था) वगैरह धारासभा में क्यों जाने चाहिये.
20
पूना के आगाखान महल में गांधीजी
के 21 दिन के उपवास का प्रारंभ 1943
1942 में लोर्ड लिनलिथगो ने
विविध वर्गों का प्रतिनिधित्व करते बावन महत्व के भारतीओं को आमंत्रित किया ...... इस प्रंसग
के बाद श्री वल्लभभाई पटेल ने अहमदाबाद के प्रवचन में कहा, "
वाईसराय ने हिन्दु महासभा के नेताओ को बुलाया, उन्होने मुस्लिम लीग के नेताओं को बुलाया और उन्होने तेली, मोची वगैरह को भी बुलाया."
21
मुंबई विधानसभा में मुंबई
प्राथमिक शिक्षण कानून सुधार विधेयक पर वक्तव्य 1938
1940 के डिसेम्बर में आयोजित
अखिल भारतीय महिला अधिवेशन में बस्ती गणना पत्रक में जाति नहीं जाहिर करने के बारे
में चर्चा हुई. श्रीमती विजयालक्ष्मी पंडित इस विचार को नकाराते हुए कहती है कि क्यों वह ब्राह्मण होने का गौरव ना ले
और बस्ती गणना में ब्राह्मण के रुप में अपनी जाति को जाहिर ना करे?
22
दक्षिण आफ्रिका के संविधान में बान्टु आदिवासीओं को दिये गये प्रावधान जैसे ही प्रावधान दलितो को मिले ऐसा डॉ. अंबेडकरका अनुरोध 1946
दक्षिण आफ्रिका के संविधान में बान्टु आदिवासीओं को दिये गये प्रावधान जैसे ही प्रावधान दलितो को मिले ऐसा डॉ. अंबेडकरका अनुरोध 1946
23
लंडन जाने से पहले पूणे में सभा, विविध समितिओं ने आर्थिक सहयोग दिया 1933
अस्पृश्यो के संतानो को
सार्वजनिक स्कूल में प्रवेश देना चाहिये या नहीं इस प्रश्न के विषय में अभिप्राय
व्यक्त करते हुए श्रीमती ऐनी बेसन्ट कहती है, " अभी तो तीव्र गंध देनेवाला भोजन तथा दारु से पीढी दर पीढी के आदी उनके
शरीर दुर्गंधभरे और गंदे है. विशुध्द आहार से पोषित और उमदा, निजी स्वच्छता की आदतों की विरासत में तालीम पानेवाले बच्चों के साथ स्कूल
की एक कक्षा में अंत्यत निकट बैठने योग्य और विशुध्द और जीवनशैली से सुसभ्य होने
में उन्हे कई साल लगेंगे.
24
पंडित जवाहर लाल नेहरु ब्राह्मण
है, परन्तु वे अपने दृष्टिकोण में बिनकोमवादी
और मान्यताओ में बिनसांप्रदयिक होने की प्रतिष्ठा रखते है. जो व्यक्ति अपने पिता
की मृत्यु के समय गंगा नदी के किनारे ब्राह्मण पुरोहित के हाथों से, रुढिचुस्त हिन्दु धर्म की धार्मिक विधियां कराये तो उसे हम बिनसांप्रदायिक
नहीं कह सकते. 1931 जब उनके पिता की मृत्यु हुई तब पंडित नेहरु ने ऐसा किया था.
25
लखनऊ में शिडयूल्ड कास्ट
फेडरेशन की पांचवी परिषद 1948
हिन्दुओं और अस्पृश्यों के बीच
संबंध दर्शानेवाला विचार मुंबई की एक परिषद में रुढिचुस्त हिन्दुओं के नेता एनापुर
शास्त्री ने ठोसरुप से व्यक्त किया था. उन्होने कहा कि, जिस तरह एक मनुष्य का उसके जूते से संबंध
है ऐसा संबंध अस्पृश्यों का हिन्दुओं के साथ है. व्यक्ति अगर जूता पहनता है तो उस
अर्थ में जूता मनुष्य के साथ जुडा हुआ है. और उसे मनुष्य का एक भाग कहा जा सकता है.
26
वडोदरा में संस्कृत पाठशाला को
संबोधित करते हुए सयाजीराव ने वंशपरंपरागत धर्मगुरुपद का खंडन किया 1917
(वाईसराय की) कारोबारी में
जुडने की ओफर का जगजीवनराम ने स्वीकार किया ये आश्चर्य की बात है. जब मैंने
(ब्रिटीश) प्रधानमंत्री को अनुसूचित जातिओं के कम प्रतिनिधित्व की बात को लेकर
विरोध करता हुए तार किया, तब कारोबारी
में प्रतिनिधित्व बढाया गया है ऐसे सरकार के दावे का जगजीवनराम ने स्वंय ही समर्थन
दिया. कांग्रेस स्वंय प्रतिनिधित्व बढाने के लिये संमत नहीं थी फिर भी जगजीवनराम
ने आमंत्रण स्वीकार करके यह दर्शाया कि अनुसूचित जातिओं के हक के लिये लडने के
लिये उन पर कितना भरोसा रखा जा सकता है.
27
मुंबई विधानसभा परिषद में मुंबई
पुलिस कानून सुधार पर वक्तव्य 1938
मूल निवासी जनजातिओ में से
पिछले 20 साल के दरम्यान श्री ठक्कर (ठक्करबापा) एक भी स्नातक पेदा नहीं कर सके है.
ये मेरे मत से उनके कार्य पर सबसे दुःखद टिप्पणी है.
28
अनुसूचित जातिओं की बैठको का
आरक्षण सिर्फ 10 साल के लिये ही है. मैं चाहता था कि जब तक अस्पृश्यता है, तब तक आरक्षण रहेना चाहिये. परन्तु
कांग्रेस नेता, दिवंगत सरदार वल्लभभाई पटेल ने मेरा विरोध
किया था, इसलिये समिति में रहे अन्य लोगों को भी सरदार को
समर्थन देना पडा क्योंकि वे उनके पक्ष के थे.
29
संविधान सभा ने छुआछुत नाबूदी
के प्रस्ताव को पारित किया 1947
30
मई - गांव और पंचायती राज
1
गुजरात राज्य स्थापना दिन 1961
आंतरराष्ट्रीय मजूर दिन.
बी.बी.सी. पर बाबासाहब ने दिया प्रवचन "मुझे बोद्ध धर्म क्यों अच्छा लगता है? 1956
हिन्दु गांव हिन्दु सामाजिक
व्यवस्था का वाइब्रन्ट कारखाना है. यहां हम हिन्दु सामाजिक व्यवस्था को पूरे जोश
में काम करती हूइ देख सकते है. लगभग हरेक हिन्दु जब गांवो के विषय में बोलता है तब
हमेशा उन्माद में होता है. वह उसे सामाजिक संगठन का आदर्श स्वरुप मानता है. जिसकी
मिशाल दुनिया में कही नहीं मिल सकती ऐसा ये मानता है.
2
विधानसभा, कार्यपालिका और न्यायपालिका से लैस स्वायत
प्रशानिक इकाईयों के रूप में गांवों का स्वीकार संविधान में होना चाहिये ऐसी दलील
के समर्थन में संविधान सभा के हिन्दु सभ्यों के उग्र प्रवचनो से मालूम होगा कि
सामाजिक संगठन के एक आदर्श नमूने के रुप में भारतीय गांवो को माननेवाले हिन्दु
कितने कट्टरपंथी है.
3
मुंबई विधान परिषद में मुंबई
म्युनिसिपल कानून सुधार पर विधेयक पर वक्तव्य 1938
उत्तर प्रदेश के अधिकतर भागों
में अस्पृश्यों को वेतन के रुप में दिये जानेवाले अनाज को "गोबरहा" कहते
है ..... बैलों की खरीओं के दबाव से भूसी में से दाने को अलग करने के लिये अनाज पर
बैलों को चलाया जाता है. अनाज पर चलते समय बैल घास के साथ अनाज को भी खा जाते है.
दूसरे दिन उसी अनाज उनके पेट में से गोबर के साथ निकलता है. गोबर को निकालकर, दाने को अलग करके अस्पृश्य मजदूर को वेतन
के रुप में दिया जाता है.
4
कबीर स्मृति दिन 1494
भारतीय बौद्ध महासभा की स्थापना
1955
पंजाब प्रांत में जमीन मालिकी तबदीली
कानून के नाम से पहचाना जाता कानून है. इस कायदे ने ऐसे समुदायों को नियत किया है, जो जमीन खरीद सके. अस्पृश्यों को इस सूचि से
बहार रखा गया है. परिणामस्वरुप, अधिकतर स्थानो पर अस्पृश्यों
को भूमिहीन मजदूर बनने के लिये बाध्य किया गया है.
5
कार्ल माकर्स जयंती 1818
अगर भारत राष्ट्रवाद को पेदा
करने में सफल नहीं हैं, अगर भारत
राष्ट्रीय जोश का निर्माण करने में सफल नहीं है तो इसका मुख्य कारण मेरे अनुमान से
ग्रामीण व्यवस्था का अस्तित्व है. उसने सभी लोगो को स्थानिक राष्ट्रीयवाद से तरबतर
कर दिया है. उसने व्यापक नागरिक जोश के लिये कोई गुंजाईश रहने ही नहीं दी.
6
ऑल इंडिया शेडयूल्ड कास्ट के
समक्ष "कोमी गतिरोध और उसके उपाय
के मार्ग" विषय पर वक्तव्य 1945
7
मा रमाबाई अंबेडकर जयंती 1897
फलस्वरुप, मैं ऐसा आग्रह करने पर बाध्य हुं कि अगर
ग्रामपंचायतें अस्तित्व में आयेगी तो, उसमें भी लघुमतीओं के
लिये खास प्रतिनिधित्व रखना पडेगा. किसी भी कींमत पर, दलितो
के लिये खास प्रतिनिधित्व रखना पडेगा. और दूसरे लोग, अलबता खुद के लिये बोलेंगे
जरुर.
8
नागपुर में अखिल भारतीय दलित
कांग्रेस 1932
प्राचीन ग्रामपंचायतो में भारत
एकजूट लोगो का देश बनने के बजाय, ग्रामीणा
समुदायों का ढीला-ढाला शंभुमेला बना, जहाँ एक राजा के प्रति
समान वफादारी के सिवाय और कोई बंधन नहीं, जो इन्हे एकजूट रखे.
9
डी.एससी. पदवी के लिये शोध
निबंध "रुपये की समस्या" का पुनःमुद्रण 1947
अधिकतर लोगों ने ग्रामपंचायत की
प्राचीन व्यवस्था की प्रशंसा की है. कुछ लोगों ने उसे "ग्रामीण
प्रजासत्ताक" कहा है. इन ग्रामीण प्रजासत्ताक के गुण कोई भी हो, मुझे ये कहने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं कि
वे भारत के सार्वजनिक जीवन के लिये खतरनाक साबित हुए हैं.
10
महाराष्ट्र चेम्बर ऑफ कोमर्स को
बाबासाहब का संबोधन 1943
प्रौढ़ मताधिकार हमारे लिये
पर्याप्त नहीं है... हर गांव में दलित वर्ग लघुमती में है. एक दुर्भाग्यपूर्ण
लघुमती. प्रौढ़ मताधिकार इस लघुमती को बहुमत
में नहीं बदल सकता.
11
स्वराज की हर संस्था में दलित
वर्गों को उनके अधिकार के रक्षण के लिये खास प्रतिनिधित्व देने का प्रावधान है
इसका मुझे विश्वास ना हो तब तक भारत के लिये स्वराज के सिद्धांतों को मैं स्वीकार
नहीं कर सकता.
12
ऑल इंडिया शेडयुल्ड कास्ट
स्टुडन्टस फेडरेशन की स्थापना, मुंबई में
प्रथम परिषद 1945
भारत यूरोप नहीं है. इंग्लेन्ड
को जाति प्रथा का पता नहीं है, हमें पता है.
फलस्वरुप जो व्यवस्था इंग्लेन्ड को अनुकूल आये वह हमें कभी भी अनुकूल नहीं आ सकती.
13
14
कोंकण पंचमहाल महार परिषद को
डॉ. अंबेडकर का संबोधन 1938
कौमी प्रतिनिधित्व कोई विषैली
चीज नहीं है. यह जहर नहीं है. इस देश में विविध वर्गों की सलामती और सुरक्षा के
लिये यह श्रेष्ठ व्यवस्था है. मैं उसे संविधान को विकृत करनेवाला नहीं कहूंगा.
15
कोलम्बिया युनिवर्सिटी में एम.
ए. की पदवी के लिये शोध निबंध "ईस्टइंडिया
कंपनी की प्रशासनिक और वित्तीय प्रणालियां" 1915
सरकारी लो कॉलज के आचार्यपद से
इस्तीफा 1938
अगर भारत के बंधारण में कुछ भी
अच्छा आनेवाला है तो वह कौमी प्रतिनिधित्व सिद्धांत की स्वीकृति है (1933)
16
चिपलूण में किसानसभा 1938
परन्तु, मैं जानता हूँ कि हम किस प्रकार का
न्यायतंत्र रखते हैं ..... मेरी जानकारी अनुसार जिसमें, न्यायतंत्र
ने उसकी स्थिति का दुरुपयोग किया हो और भ्रष्ट रीति-रिवाज का आचरण किया हो, मैं
ऐसे वृतांतो का ढेर खडा कर सकता हूँ,
17
सायमन कमिशन के समक्ष डॉ.
अंबेडकर की सिफारिश 1929
भारतीय गांव प्रजासत्ताक के
इनकार समान है. अगर प्रजासत्ताक है, तो वह
स्पृश्यों के द्वारा, स्पृश्यों के लिए, स्पृश्यों का प्रजासत्ताक है.
18
मेकिसम गोर्की स्मृति दिन 1936
हिन्दु विवाह विधेयक को मंजूरी
1955
(ग्रामीण) प्रजासत्ताक
अस्पृश्यो पर हिन्दुओं का रजवाडा है. यह अस्पृश्यों के शोषण के लिये रचा गया
हिन्दुओं का एक प्रकार का संस्थानवाद है.
19
पीपल्स एज्युकेशन सोसायटी की
सिध्दार्थ कॉलेज का प्रारंभ 1946
किसलिये अस्पृश्य हजारो साल से
हिन्दुओं के गुलाम और भुदास रहे हैं? मेरे मत अनुसार
इस प्रश्न का उत्तर हिन्दु गांवो के विशिष्ट संगठन में है. आप समग्र भारत में फैले
हुए हैं और हर हिन्दु गांव के साथ अस्पृश्यों की छोटी बस्ती जुडी हुई है.
20
"वोईस ऑफ अमरीका" पर "भारत की लोकतंत्र का भावि" विषय पर बाबासाहब का भाषण 1956
21
पूना के अहल्याश्रम की मुलाकात
1932
राजीव गांधी हत्या 1991
यह ग्रामीण व्यवस्था तूटनी ही
चाहिये. अगर ग्रामीण व्यवस्था द्वारा हिन्दुओं ने अस्पृश्यों पर जमाये शासन से
अस्पश्य सचमुच मुक्त होना चाहते है तो यह एक ही मार्ग अस्पृश्यों के लिये बचा है.
22
अस्पृश्यो की बस्ती के पास
आर्थिक रुप से कोई भी संसाधन नहीं है और प्रगति के लिए कोई भी मोका नहीं हैं. यह
अनिर्वायरुप से भूमिहीन बस्तियों का निवासस्थान है. यह संपूर्णरुप से अनाथ है और
अपने जीवननिर्वाह के लिये हिन्दु गांवों पर निर्भर हैं.
23
बेलगांव में दलितो ने बाबासाहब
का सम्मान किया और 500 रु का दान किया 1932
मेरा प्रस्ताव है कि आप
सार्वजनिक खर्च से केन्द्र सरकार के द्वारा सिर्फ और सिर्फ अस्पृश्यों के बने हुए
नए और स्वायत गांवो की रचना करने का विधेयक संविधान में रखने का आग्रह करें.
(1942)
24
मुंबई के नरीमान पाइन्ट पर
ऐतिहासिक सभा, सावरकर की
आलोचना 1956
जोतने के लिये सरकार के पास
बहुत बडे पैमाने पर जमीन है. ये जमीन अस्पृश्यों के नये गांवो की योजना के अमल के
लिये आरक्षित हो सकती है. सरकार निजी व्यक्तिओं से लागत से कम मूल्य में अलग बंजर
जमीन खरीद सकती है और उसे इस उपयोग के लिये उसका इस्तेमाल कर सकती है.
25
बाबासाहब कोलंबो बौद्ध परिषद
में 1950
मजदूर के रुप में अस्पृश्य उचित
वेतन की मांग नहीं कर सकते. हिन्दु किसान उनके मालिक के रुप में जो वेतन दे उसके
बदले में उन्हे काम करना पडता है. इस मुदे पर हिन्दु किसान जितना हो सके उतना कम
वेतन देने के लिये एकजुट हो सकते है ..... अस्पृश्यों को नक्की किये दर पर ही काम
करना होता है, नहीं तो हिंसा
का भोग बन सकते है.
26
मेरी जानकारी अनुसार देश के कुछ
भागो में अस्पृश्यो के जीवननिर्वाह के लिये एक ही सलामत स्रोत है, वह है गांव के हिन्दु से भीख मांगने का
अधिकार.
27
माता रमाबाई अंबेडकर स्मृति दिन
1935
पंडित जवाहरलाल नेहरु स्मृति
दिन 1964
28
विनायक दामोदर सावरकर जयंती
1886
यहूदी ईसु ख्रिस्त के मृत्यु के
जिम्मेदार थे, ऐसी मान्यता के कारण यहुदी अत्याचार के भोग बनते रहे हैं. मध्ययुग
में युरोप के लगभग सभी नगरो में यहुदीओं को अलग बस्तियों में मर्यादित जगह में
रहने को बाध्य किया जाता था और यहुदी बस्ती "बाडा" (घेट्टो) के नाम से
जानी जाती थी.
29
चित्तेगांव (नासिक) में विराट
परिषद 1929
माईसाहेब सविता अंबेडकर स्मृति
दिन 2003
ये आघातजनक लगेगा, परन्तु (भीख मांगने का) यह अधिकार
अस्पृश्यों का परंपरागत अधिकार बना है. और सरकार भी जब अस्पृश्यों को सरकारी काम
पर रखती है तब वेतन नक्की करने के लिये अस्पृश्यो के द्वारा भीख में मांगे गये
अनाज के मूल्य को ध्यान में लेती है.
30
सयाजीराव ने कश्मीर में हिन्दु
स्कूल और महंमद नसरल-उल-ईस्लाम की मुलाकात ली, उर्दू में वक्तव्य दिया 1903
पृथक अधिवास (सेपरेट सेटलमेन्ट) की यह मांग अस्पृश्यो के द्वारा पहली बार उठाई गई मांग है. हिन्दु इस मांग
के प्रति कैसा रवैया अखत्यार करेंगे यह अभी कहना मुश्किल है....... हिन्दु ऐसा
सोचने के आदी है कि ..... जिस तरह बाईबल कहता है कि पति पत्नी के साथ जुडा हुआ है
उसी तरह वे और अस्पृश्य ईश्वर की इच्छा से जुडे हुए है.
31
मुंबई महार परिषद का संकल्पः
हिन्दु धर्म छोडो 1936
सिद्धार्थ महाविधालय में भोजन
समारंभ 1952
जब तक ग्रामजीवन प्रथा
अस्पृश्यों को अलग करने की और पहचानने की सरल पद्धति देती रहेगी, तब तक अस्पृश्य अस्पृश्यता से छटक नहीं
सकते. यह ग्रामजीवन की प्रथा ही अस्पृश्यता को स्थायी बनाती है, इसलिये अब अस्पृश्यो की मांग है कि इस प्रथा को तोड़ना चाहिये और सामाजिक
रुप से अलग अस्पृश्यों को भौगोलिक और प्रादेशिक रुप से अलग करना चाहिये.
जून – गुलामी प्रथा
1
महात्मा ज्योतिराव फूले का
ग्रंथ "गुलामगीरी" प्रसिद्ध हुआ 1873
बाबासाहब मुंबई में सरकारी लो
कॉलेज में आचार्यपद पर नियुक्त 1935
गुलामी हिन्दुओं की प्राचीन
संस्था है. हिन्दु कानून के निर्माणकार मनु ने गुलामी को मान्यता दी है और मनु के
अनुगामी अन्य स्मृति लेखको ने उसे विस्तृत करके व्यवस्थित स्वरुप दिया है
2
एम.ए.
(अर्थशास्त्र-समाजशास्त्र) की पदवी 1915
हिन्दुओ में गुलामी अति प्राचीन
समय में कार्यरत ऐसी कोई पुरानी संस्था मात्र नहीं थी. यह समग्र भारतीय इतिहास में
सन 1843 तक टिकी हूई व्यवस्था थी. और अगर ब्रिटीश सरकार ने 1843 में कानून के
द्वारा उसे नाबूद ना किया होता, तो वह आज भी
टिकी रही होती.
3
दलितों के लिये अलग कूवा, स्कूलों की स्थापना करने के बारडोली
कार्यक्रम का स्वामी श्रद्धानंद ने विरोध किया 1922
4
विदेश अभ्यास के लिये वडोदरा
सरकार के साथ शिष्यवृति करार 1931
जलगांव के 12 अस्पृश्यो के
इस्लाम अंगीकार से भयभीत सनातनीओं ने दो कुवों का पानी अस्पृश्यों के उपयोग के लिए
खोल दिया 1929
मैं सांप्रत समय के अस्पृश्यों
की तुलना रोम साम्राज्य के गुलामों की स्थिति से करने को तैयार हूँ. एक पक्ष की
सबसे बदतर स्थिति के साथ दूसरे पक्ष की सबसे श्रेष्ठ स्थिति की यह तुलना है, क्योंकि वर्तमान समय अस्पृश्यों के लिये
सुवर्णयुग गिना जाता है.
5
अधिक अभ्यास के लिये विलायत
1920
अमरिका की कोलम्बिया
युनिवर्सिटी ने डॉक्टर ऑफ लोज की पदवी एनायत की 1952
भारत के अस्पृश्यो की स्थिति
में ऐसा क्या है, जिसकी तुलना
रोम के गुलाम और अमरीका के नीग्रो गुलाम की स्थिति के साथ कर सकते है? रोम साम्राज्य के गुलामो के साथ अस्पृश्यो की स्थिति की तुलना करने के लिये
एक ही समय अवधि को लेना उचित होगा.
6
तत्कालीन कांग्रेसी केन्द्रीय
प्रधान गढवी के स्वजनों के दमन के खिलाफ सांबरडा के दलितों की सामूहिक हिजरत और
गुजरात के दलित आंदोलन में कीसी भी फोरीन फंडिंग एजन्सी की मदद लिए बिना लडे गए
चुनंदा संघर्षो में से एक ऐसे सांबरडा के सफल संघर्ष का पानाचंद परमार साहब के
नेतृत्व में पालनपुर कचहरी से हुआ प्रारंभ 1989
अस्पृश्यों की वास्तविक स्थिति
के साथ गुलामो की वास्तविक स्थिति की तुलना किस तरह की जाये? रोम में गुलाम जिस तरह ग्रंथपाल, श्रुत लेखको, लघुलिपि जैसे व्यवसाय में थे उस प्रकार
कितने अस्पृश्य ऐसे व्यवसाय में है? रोम में गुलाम वक्ता,
व्याकरणविद्, फिलसूफ, शिक्षक,
डॉक्टर और कलाकार जैसे बौद्धिक व्यवसाय में थे उस तरह कितने
अस्पृश्य इस काम में लगे हुए है?
7
दरियापुर में अंत्यज हितचिंतक
मंडल की स्थापना, पत्रिका का
प्रकाशन 1928
खेदजनक बात ये है कि, एक मनुष्य या फिर वर्ग कानून के द्वारा
दूसरे व्यक्ति को जीवन और मृत्यु की सत्ता पर रखे यह गलत है ऐसा मानने की वजह से
ज्यादातर लोग गुलामी का विरोध करते है. परन्तु यह भूल जाते है कि गुलामी ना हो तो
भी दुःख, निराशा और हताशा की परंपरा के साथ घातकी दमन,
आंतक, अत्याचार हो सकता है.
8
कंथारिया (जि. भरुच) में दलितों
पर सितम 1984
अस्पृश्ता गुलामी का टेढा और
सबसे बदतर स्वरुप है.
9
ब्रिटिश शासन के खिलाफ आदिवासी
विद्रोह के ज्वलंत प्रतीक बिरसा मुंडा शहीद दिन
गुलामी एक मुक्त सामाजिक व्यवस्था
नहीं है, यह कबूल करना ही चाहिये, परन्तु अस्पृश्यता को मुक्त सामाजिक व्यवस्था कहा जा सकता है? अस्पृश्यता का बचाव करने के लिये आगे आते हिन्दु बेशक दावा करते है कि यह
ऐसे ही है. परन्तु ये भूल जाते है कि अस्पृश्यता और गुलामी के बीच ऐसा अंतर है,
जो अस्पृश्यता को एक अस्वतंत्र सामाजिक व्यवस्था का बदतर प्रकार बना
देता है.
10
बाटली बोय एकाउन्टन्सी कंपनी
में अंशकालीन समय के व्याख्याता बने 1925
11
गुलामी का कानून मुक्ति की छूट
देता है. एक बार गुलामी यानि हमेंशा गुलाम ऐसा गुलाम का नसीब नहीं था. अस्पृश्यता
में कोई भी छूटकारा नहीं है. एक बार अस्पृश्य, हंमेशा अस्पृश्य.
12
अहमदाबाद में सफाई कर्मचारीओं
की 18 दिन की हडताल 1946
मुंबई में बाबासाहब की सभा 1951
गुलामी कभी अनिवार्य नहीं थी, परन्तु अस्पृश्यता अनिवार्य थी. एक व्यक्ति
को छूट है दूसरे व्यक्ति को गुलाम बनाने की. अगर वह ऐसा नहीं करना चाहता है तो उसे
ऐसा करने के लिये कोई दबाव नहीं है. परन्तु अस्पृश्य के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं
हा. एकबार वह अस्पृश्य के रुप में जन्म लेता है तो एक अस्पृश्य की सभी असमर्थताओं
का वह भोग बनता है.
13
देवदासी तथा जोगनीओ की मुंबई
में प्रथम परिषद 1936
सीधे और खुल्ले तौर पर एक
मनुष्य की आजादी छीनना ये गुलामी का पंसदगीपात्र स्वरुप है. वह गुलाम को गुलामी के
लिये सभान बनाता है और गुलामी के लिये सभान बनना ये आजादी की लडाई के लिये सौ
प्रथम और सबसे महत्वपूर्ण कदम है, परन्तु अगर
मनुष्य की आजादी परोक्ष रुप से छीन ली जाये तो उसे उसकी गुलामी का कोई एहसास नहीं
रहता.
14
बहिष्कृत हितकारिणी सोसायटी की
स्थापना 1928
डिप्रेस्ड क्लास एज्युकेशन
सोसायटी की स्थापना 1928
अस्पृश्यता एक मुक्त सामाजिक
व्यवस्था के सभी गेरफायदों से संपन्न है. मुक्त सामाजिक व्यवस्था में अस्तित्व के
संघर्ष में टिके रहने की जिम्मेदारी व्यक्ति के सिर पर होती है. यह जिम्मेदारी
मुक्त समाजिक व्यवस्था का सबसे बडा गेरलाभ है. कोई भी व्यक्ति इस जिम्मेदारी को
निभाने के लिये समर्थ है या नहीं उसका आधार न्यायी शरुआत, समान तक और विवेकी व्यवहार पर है. एक मुक्त
व्यक्ति होने के बावजूद भी अस्पृश्य को न्यायी शरुआत, समान
मौका नहीं मिलता था और उसके साथ विवेकी व्यवहार नहीं होता था.
15
आंबेडकरवादी मुलदास साधु
(जूनागढ़) का माईसाहब की उपस्थिति में सम्मान 1978
अधिकतर लोग यह नहीं जानते कि
अमरीका में गुलामी के काल में ख्रिस्ती पादरी नीग्रो गुलामों को ख्रिस्ती धर्म में
धर्मान्तर करने के लिये तैयार नहीं थे, क्योंकि उनका
कहना ऐसा था कि अगर धर्मातरित व्यक्ति गुलाम रहे तो ख्रिस्ती धर्म की अधोगति होगी.
उनके अभिप्राय अनुसार एक ख्रिस्ती दूसरे ख्रिस्ती को गुलाम के रुप में नहीं रख
सकता.
16
डॉ. अंबेडकर - गांधी मुलाकात, मणीभुवन, मुंबई 1934
एक अस्पृश्य से ऐसा कहना कि
"तु मुक्त है, तु नागरिक है,
तेरे पास नागरिक के सभी अधिकार है" और फंदे को ऐसा मजबूत करना
कि यह आर्दश एक घातकी छल है ऐसा एहसास करने का कोई मौका उसके पास बचे ही नहीं.
अस्पृश्य को उसकी गुलामी के बारे में सभान बनाये बिना गुलाम बनाने की यह तकनीक है.
यह अस्पृश्यता है, फिर भी गुलामी है. परोक्ष है, फिर भी वास्तविक है. यह सह्य है, क्योंकि ये बेहोशी
है. दोनों व्यवस्था में अस्पृश्यता बेशक रुप से बदतर है.
17
हिन्दु उत्तराधिकार विधेयक को
मंजूरी 1955
18
महार-बटालियन में जुडने के लिये
दलितो को डॉ. अंबेडकर का अनुरोध 1941
गुलामी में शिक्षण, सदगुण, सुख, संस्कृति और संपति के लिये अवकाश है. अस्पृश्यता में ऐसा कुछ भी नहीं है.
गुलामी जैसी अ-स्वतंत्र सामाजिक व्यवस्था का कोई लाभ अस्पृश्यता में नहीं है.
अस्पृश्यता एक मुक्त सामाजिक व्यवस्था के सभी गेरलाभों से संपन्न है.
19
औरंगाबाद मिलिन्द महाविधालय की
स्थापना 1950
गुलामी या फिर अस्पृश्यता दोनों
में से कोई भी मुक्त सामाजिक व्यवस्था नहीं है, परन्तु, दोनों के बीच
कोई भेद करना हो तो, और बेशक दोनों के बीच भेद है ही,
कसौटी यह है कि शिक्षण, सदगुण, सुख, संस्कृति और संपत्ति गुलामी में संभव हो सकते
हैं या फिर अस्पृश्यता में? इस कसौटी का निर्णय करें तो यह
बात नि:संदेह है कि गुलामी अस्पृश्यता
से सौ गुनी बेहतर है.
20
एम. एससी. पदवी की प्राप्ति
1921
मुंबई में सिद्धार्थ महाविधालय
का आंरभ 1946
गुलामी जैसी अस्वतंत्र सामाजिक
व्यवस्था में गुलाम के जीवन और शरीर की सुरक्षा करने का कर्तव्य उसके मालिक के सिर
पर रहेता था. गुलाम उसके भोजन, कपड़े और आश्रय
की सभी जिम्मेदारीओं से मुक्त था.
21
पुना में सार्वजिनक सभा 1946
मुक्त समाज के हर व्यक्ति को
व्यापार के ज्वार और भाटा, तेजी और मंदी
के उतार-चढाव में से गुजरना पडता है. परन्तु, गुलाम को इसका
कोई असर नहीं होता. यह उसके मालिक को असर कर सकता है, परन्तु
गुलाम उसमें से आजाद रहता है. उसे रोटी मिलती रहती है, शायद
एक ही रोटी, परन्तु रोटी, चाहे मंदी हो
या तेजी.
22
डॉ. अंबेडकर - सुभाषचंद्र बोज़
मुलाकात 1940
अस्पृश्य को सभ्यता की उंची कलाओ
में प्रवेश नहीं मिलता है, सुसंस्कृत जीवन
का कोई मार्ग खुल्ला नहीं है. उसे तो सिर्फ झाडू लगाने के सिवाय दूसरा कोई काम
नहीं होता. अस्पृश्यता में जीवननिर्वाह की कोई गेरंटी नहीं होती.
23
हिन्दुओ में कोई भी व्यक्ति
अस्पृश्यों को आहार, निवास और
वस्त्र देने के लिये वाध्य नहीं है. अस्पृश्य का आरोग्य किसी की चिंता का विषय
नहीं है. हकीक़त में अस्पृश्य की मृत्यु हो, तो बला टली गई
ऐसा कहा जाता है. एक हिन्दु कहावत है, "अंत्यज मरा,
छुआछुत का भय टला"
24
बाबासाहब के ऐतिहासिक ग्रंथ ‘गांधी और कांग्रेस ने अस्पृश्यों के लिये
क्या किया?’ का प्रकाशन
1945
25
वाईसरोय की कारोबारी में से
इस्तीफा 1946
गुलामी की तुलना में अस्पृश्यता
क्रुर है क्योंकि यह अस्पृश्य के जीवननिर्वाह के सभी मार्गो को बंद करके अपने जीवन
निर्वाह की जिम्मेदारी अस्पृश्य के सिर पर थोपती है.
26
जोतीबा फूले के अनुनायी तथा
सत्यशोधक समाज के महान नेता भास्करराव जादव स्मृति दिन 1950
अस्पृश्यता गुलामी से बदतर ही
नहीं, गुलामी की तुलना में हकारात्मक रुप
से घातकी है. गुलामी में गुलाम के लिये काम ढुंढने की जिम्मेदारी मालिक की होती है.
मुक्त श्रमव्यवस्था में मजदूरों को काम पाने के लिये दूसरे मजदूरो से स्पर्धा करनी
पडती है. काम के लिये इस छीनाझपटी में अस्पृश्यो को न्यायी सोदा करने के मौके
कितने?
27
पंडित नेहरु ने राज्य के मुख्य
प्रधानों पर भेजे पत्र में कहा, "मैं
किसी भी प्रकार के आरक्षण को नापंसद करता हूँ". 1961
गुलामों से विपरीत अस्पृश्यों
को हिन्दु अपने हितों को आगे बढाने के लिये और काम खत्म होने पर भगा देने के लिये
रखते है. और जब रखते है तब बोझ के तले ही रखते है. अस्पृश्यों स्वतंत्र सामाजिक
व्यवस्था के किसी भी लाभ को प्राप्त करने का दावा नहीं कर सकते और मुक्त सामाजिक
व्यवस्था के सभी गेरलाभो को सहना पडता है.
28
दलित छात्रलाय की स्थापना के
लिये अहमदाबाद की (प्रथम) मुलाकात 1928
गुलामी के संदर्भ में प्राचीन
रोमन धर्म और ख्रिस्ती धर्म तथा अस्पृश्यता के संदर्भ में हिन्दु धर्म के बीच की
गई एक तुलना से यह मालुम होता है कि मानव संस्थाओ पर इन धर्मो का असर कितना अलग
रहा है. प्राचीन रोमन और ख्रिस्ती धर्म की तुलना में हिन्दु धर्म का असर कैसा
अधोगामी रहा है.
29
समता पाक्षिक प्रांरभ 1928
अस्पृश्यों के उद्धार के लिये
हिन्दुओं की सेवा और समर्पण के उपाय कौन से है? हिन्दु जिसके लिये डींगे मार सके ऐसी एक ही
संस्था हरिजन सेवक संघ है. उसका पूंजीकोष लगभग 10 लाख से ज्यादा नहीं होगा .....
यह तो मूल रुप से राजकीय दान है, जिसका उदेशय यह है कि
अस्पृश्य हिन्दुओ के विरुद्ध में मतदान ना करे.
30
दादाभाई नवरोजजी स्मृति दिन
1917
अस्पृश्यों के लिए अस्पृश्यता
एक दुर्भाग्य हो सकती है. परन्तु इसमें कोई शंका नहीं है कि हिन्दुओं लिए यह
सदभाग्य है.
जुलाई - धर्मांतर
1
वाईसराय की एक्झिक्युटीव काउन्सिल में बाबासाहब की नियुक्ति 1942
कौमी एकता के अमर शहीद वसंत-रजब स्मृति दिन 1946
धर्मान्तर विवाद में यह एक असाधारण बात है कि एक भी हिन्दु में अस्पृश्य को ऐसा कहकर चुनौती देने की हिंमत नहीं है कि हिन्दु धर्म में क्या खराबी है. हिन्दु धर्मों के तुलनात्मक विज्ञान के द्वारा सर्जित अभिगम का सिर्फ आश्रय ले रहा है.
2
हिन्दु धर्म (सामाजिक न्याय का) कार्य करने के लिये सक्षम था ऐसा मान ले तो भी यह कार्य उसके लिये करना असंभवित था. अस्पृश्यों और हिन्दुओं के बीच का सामाजिक अवरोध हिन्दुओं के आंतरिक अवरोधों से भी विशेष था. एक समुदाय या राष्ट्र में धर्म कितना ही असरकारक हो तो भी इन अवरोधों को तोडकर उन्हे एकजूट बनाना उसके लिये बिल्कुल अशक्य है.
3
हिन्दु धर्म सामाजिक न्याय को चरितार्थ करने का मिशन हाथ में लेगा ऐसी अपेक्षा निरर्थक है. यह कार्य इस्लाम, ख्रिस्ती धर्म या फिर बौद्ध धर्म कर सकता है. हिन्दु धर्म स्वयं अस्पृश्यो के खिलाफ अन्याय और असमानता का मूर्तिमंत स्वरुप है. इसके लिये न्याय के सिद्धांतो का उपदेश देना यह उसके अपने अस्तित्व के विरुद्ध जाने के बराबर है.
4
अमरिका के स्वातंत्र्य की घोषणा
आज धर्म पूर्वजों की मिल्कत का एक टुकडा बन गया है. वसियतदार की तरह वह बाप के पास से बेटे के हाथ में जाता है. धर्म परिर्वतन के ऐसे किस्सो में कितनी सच्चाई है? अस्पृश्य का धर्मान्तर होगा तो धर्म का मूल्य और विविध धर्मो के गुण के बारे में संपूर्ण विचार के बाद होगा. ऐसे धर्मान्तर को क्या सही धर्मान्तर नहीं कह सकते?
5
मुंबई के सिडनहेम कॉलेज में इस्तीफा देकर लंडन में अभ्यास के लिये प्रयाण 1920
अस्पृश्य के धर्मांतर से क्या राजकीय लाभ होगा इसका किसी ने आकलन नहीं किया है. अगर कोई राजकीय लाभ हो, तो भी किसी ने भी यह साबित नहीं किया कि वह धर्मान्तर करने की सीधे-सीधी लालच है.
6
अस्पृश्यों वर्तमान स्थिति में उसी राजकीय अधिकारो को भोगते है, जो मुस्लिम और ख्रिस्ती भोगता है. अगर वो अपने धर्म को बदले तो भी यह परिवर्तन उन राजकीय अधिकारो को नहीं ला सकता, जो पहले अस्तित्व में नहीं थे. राजकीय लाभो को धर्मान्तर के साथ कोई लेनादेना नहीं है.
7
दलितो के हितो की उपेक्षा करनेवाली केबिनेट मिशन योजना के विरोध में प्रदर्शन 1946
सभी धर्म सीखाते है कि ‘शुभ’ की प्राप्ति में जीवन का अर्थ समाया है. इस अर्थ में सभी धर्म समान हो सकते हैं. परन्तु सभी धर्मो में "शुभ" क्या है? इसका कोई एक समान उत्तर नहीं मिलता. एक धर्म मानता है कि भातृत्व शुभ है, दूसरा मानता है, कि जाति और अस्पृश्यता शुभ है.
8
पीपल्स एज्युकेशन सोसायटी की स्थापना 1945
9
बैंक ऑफ बरोडा का प्रारंभ, सयाजीराव का उदघाटकीय भाषण 1908
अमरीका के ब्लेक पेंथर से प्रेरणा लेकर महाराष्ट्र में नामदेव ढसाल, राजा ढाले, अरुण कांबले आदि दलित कविओं ने दलित पेंथर की स्थापना की 1972
धर्मो के तुलनात्मक अध्ययन ने दैवी वाणी से उदघाटित सभी धर्मो के इस मगरुर दावे को तोड दिया है कि सिर्फ वे ही सच्चे है और दैवी वाणी से उदघाटित नहीं हुए दूसरे धर्म गलत है.
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अभ्यास के लिये बाबासाहब का न्यूयार्क प्रस्थान 1931
11
धर्म का प्राथमिक तत्व सामाजिक है इस हकीकत की उपेक्षा करना धर्म को अर्थहीन बनाने के बराबर है. ..... आदिम समाज के धर्म में जीवन की प्रक्रिया केन्द्र स्थान पर थी या फिर उनको असर करनेवाली सभी बातें धर्म का हिस्सा बनी थी. आदिमसमाज की धार्मिक विधियां सिर्फ जन्म, प्रौढ़ उम्र प्राप्ति, मासिक धर्म की प्राप्ति, विवाह, बीमारी, मृत्यु और युद्ध की घटनाओं से ही नहीं, बल्कि भोजन के साथ भी संबंधित थी.
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इन्डीपेन्डन्ट लेबर पार्टी (आई. एल. पी.) और बोम्बे म्यु. लेबर युनियन ने डॉ. अंबेडकर का अभिवादन किया 1942
अस्पृश्यों के तरफ हिन्दुओं की कानूनविहिनता को कानूनी बनानेवाले प्रभाव और परंपरा हिन्दु धर्म के उपदेश पर आधारित और समर्पित है. हिन्दु अस्पृश्यों को हिन्दु धर्म स्वीकार करने और हिन्दु धर्म में रहने के लिये कैसे कह सकते है?
13
बोम्बे म्युनिसिपल कामगार युनियन की सामान्य सभा को बाबासाहब का संबोधन 1941
गुजरात रीपब्लिकन पार्टी के नेता, आंबेडकरी योद्धा वी. टी. परमार स्मृति दिन 1997
अस्पृश्यता सबसे अंतिम गहरी सतह है, जहां तक एक मनुष्य को अधोगति पर पहुंचाया जा सकता है. गरीब होना खराब है, परन्तु इतना खराब नहीं है जितना एक अस्पृश्य होना. गरीब मगरुर हो सकता है, अस्पृश्य नहीं.
14
महार वतनदारी (बंधुआ मजदूरी) के बारे में सरकार को डॉ. अंबेडकर का आवेदन पत्र 1941
हल्की जाति में गिना जाना यह खराब बात है, परन्तु इतना खराब नहीं है, जितना अस्पृश्य होना. हल्की जाति का व्यक्ति उसके दरजे से उंचा उठ सकता है, अस्पृश्य नहीं.
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ब्रिटीश संसद ने एक्ट ऑफ इन्डियन इन्डीपेन्डस को पारित किया 1947
16
रंक होना खराब है, परन्तु उतना खराब नहीं जितना की अस्पृश्य होना. रंक धरती का वारिस नहीं बने तो भी कम से कम ताकतवर अवश्य बनेगा. अस्पृश्य ऐसी आशा नहीं रख सकता.
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दुःखो को सहना खराब है, परन्तु उतना खराब नहीं की जितना अस्पृश्य होना. दुःखो से कभी ना कभी छुटकारा मिल ही जायेगा. अस्पृश्य ऐसी आशा नहीं रख सकता.
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ऑल इंडिया डिप्रेस्ड क्लासीस परिषद. नागपुर 1942
एक हिन्दु के लिये हिन्दु धर्म में यकीन करना इतना महत्वपूर्ण नहीं है. यह यकीन तो उसकी गुरुताग्रंथि की वह भावना को ऐसी सभानता से सींचता है कि उसके नीचे लाखों अस्पृश्य है. मगर एक अस्पृश्य ऐसा कहे कि वह खुद भी हिन्दु धर्म में मानता है तो उसका क्या अर्थ होगा? उसका अर्थ यह होगा कि वह स्वीकार करता है कि वह एक अस्पृश्य है और दैवी व्यवस्था की वजह से अस्पृश्य है, क्योंकि हिन्दु धर्म दैवी व्यवस्था है.
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शेडयूल्ड कास्ट फेडरेशन की नागपुर में स्थापना. गुजरात में से आंबेडकरी नेता, अहमदाबाद की पटनी शेरी के पुरुषोतम मकनजी पटनी उपस्थित 1942
एक अस्पृश्य एक हिन्दु का गला नहीं काटेगा. परन्तु वह एक अस्पृश्य है इसमें कुछ भी गलत नहीं है ऐसा कबूल करने की उसके पास अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए. ऐसा कौन सा अस्पृश्य है जिसकी आत्मा इतनी मृतःपाय होगी कि वह हिन्दु धर्म से जुडे रहकर ऐसा क़बूल करे?
20
बहिष्कृत हितकारिणी की स्थापना 1924
धर्मांतर का तर्क अकाट्य हो तो भी संतुष्ट नहीं होने की धर्मान्तर विरोधीओं ने ठान ली है .... एक प्रश्न पुछने के लिये वे हमेशा व्याकुल रहते हैं .... अस्पृश्य को उसके धर्म बदलने पर भौतिक रुप से कौन से लाभ मिलेंगे? यह सच है कि धर्मान्तर से अस्पृश्यों को कोई भौतिक लाभ नहीं मिलनेवाला. बेशक, इसमें कोई नुकसान भी नहीं, क्योंकि हिन्दु के रुप में तो गरीब रहने के लिये ही इनका सर्जन हुआ है.
21
समता सैनिक दल की मुंबई में सभा 1942
नेशनल सीमेन्स युनियन का मेला 1942
(धर्मांतर के बाद) राजकीय रुप से अस्पृश्य उनके मिले राजकीय अधिकारो को खोयेंगे. ये भी बेशक, वास्तविक नुकसान नहीं है, क्योंकि धर्मान्तर के द्वारा वह जो समुदाय में जुडेगा, उसके आरक्षित लाभ उनको मिलेंगे. राजकीय रुप से फायदा या हानि कुछ भी नहीं है.
22
अशोक चक्र के साथ तिरंगा को राष्ट्रध्वज के रुप में मान्यता 1947
23
ए. आइ. सी. सी. की स्थापना. उप-समिति के कन्वीनर के पद से इस्तीफा नहीं देने के लिये महामंत्री मोतीलाल नहेरु का स्वामी श्रध्दानंद को अनुरोध 1922
अस्पृश्यों को तीन चीजों की जरुरत है. प्रथम, उनके सामाजिक अकेलेपन का अंत लाने की जरुर हैं. दूसरी, उन्हे अपनी लघुताग्रंथि को तोडने की जरुरत है. तीसरी जरूरत है, सामाजिक दरज्जे को बदलने की.
24
सनातन वर्ग के विरोध के कारण डॉ. अंबेडकर ने महार जागीरदारी नाबूदी विधेयक वापस ले लिया 1929
सामाजिक रुप से अस्पृश्यों को, नि:संदेह, जबरजस्त फायदा होगा, क्योंकि धर्मान्तर से अस्पृश्य ऐसे समाज के सभ्य बनेंगे, जिसके धर्म ने जीवन के सभी मूल्यों को वैश्विक और समान बनाया है. हिन्दु धर्म में ऐसे विचार के बारे में सोच भी नहीं सकते.
25
फुलनदेवी हत्या 2001
"You have Harshad Mehta, we have Phoolan,
Let’s celebrate this equality of opportunity"
(The Dossirer, 1997)
अस्पृश्यो के लिये उनका सामाजिक अकेलापन दूर करने का एक मात्र मार्ग है, जाति के प्रभाव से मुक्त ऐसी किसी अन्य कोम के साथ खून का रिस्ता बनाना और उनके साथ घुल मिल जाना.
26
शाहु महाराज का जन्म 1874
अस्पृश्यो की लघुताग्रंथि उनके अलगाव, भेदभाव और सामाजिक वातावरण की प्रतिकुलता का परिणाम है.... क्या धर्म अस्पृश्यो की मानसिकता को बदल सकता है? मानसशास्त्रीओं का अभिप्राय है कि धर्म इसका इलाज कर सकता है, शर्त इतनी है कि यह धर्म योग्य प्रकार का हो, यह धर्म व्यक्ति को पतित, बेकार, अछूत के रुप में नहीं परन्तु एक समान मनुष्य के रुप में देखें.
27
मुंबई विधान परिषद में बाबासाहब का "मुंबई युनिवर्सिटी कानून सुधार विधेयक" पर वक्तव्य 1927
आंतरभोजन के लिये किए ज रहे अनुरोधों का हिन्दु उनकी जाति प्रथा का बचाव करने के लिये मजाक उडाते हैं. यह पूछते हैः "आंतर भोजन में क्या है?" समाजशास्त्री के द्रष्टिबिन्दु से प्रश्न देखें तो आंतर भोजन में सब कुछ है.
28
मुंबई विधान परिषद में ‘प्रसुति लाभ विधेयक’ पर वक्तव्य 1928
खून का संबंध बंधुत्व की सामाजिक स्वीकृति है. सभी स्वीकृतिओं की तरह यह स्वीकृति भी गठबंधन बने उसके पहले उसमें दरखास्त करने की, अनुमोदन देने की और अमल करने की जरुरत पडती है. दरखास्त, महोर और अमल की पद्धति धर्म नक्की करता है और यह पद्धति है धार्मिक भोजन में हिस्सा लेने की.
29
30
पूना में अंबेडकर स्कूल ऑफ पोलिटिक्स की स्थापना 1944
ख्रिस्ती धर्म की तरफ श्री गांधी का विरोध अत्यंत प्रसिध्द है, ...... गांधी कहते है, "मैं ऐसा मानता हूँ कि हरिजनों का विशाल समूह और उसी तरह भारतीय मानव ख्रिस्ती धर्म के प्रस्तुतीकरण को समझ नहीं सकते.... वे (हरिजन) दो चीजों के गुणदोष की तुलना नहीं कर सकते, जितनी गाय कर सकती है. हरिजनो के पास दिमाग नहीं है, बुद्धि नहीं है, ईश्वर और अनिश्वर के बीच फर्क समझने की शक्ति नहीं है".
31
क्रांतिकारी उधमसिंद शहीद दिन. जलियांवाला बाग में हजारों लोगों को मारनेवाले माइकल ओ डायर को 21 साल बाद लंडन जाकर मारनेवाले इस महान दलित शहीद का नाम बहुत कम लोग जानते है. उधमसिंह का पोता आज पंजाब में इंटों के भठ्ठे में मजदुरी कर रहा है.
नाम महत्व का है और बहुत बड़ा महत्व रखता है, क्योंकि नाम अस्पृश्यों के दरज्जे में क्रांति ला सकता है. परन्तु, यह नाम हिन्दु धर्म के बाहर का और उसे खराब करने और नीचा दिखाने की हिन्दु धर्म की पहुंच से दूर हो ऐसे समुदाय का होना चाहिये. इस तरह का नाम अस्पृश्यों की संपति तभी बन सकता है, जब वे धर्मान्तर करे. हिन्दु धर्म में सिर्फ नाम बदलकर होनेवाला धर्मान्तर एक निजी धर्मान्तर है. जिसका कोई मतलब नहीं है.
अगस्त – संसदीय लोकशाही
1
वाईसराय काउन्सिल में दलित वर्गों का समावेश नहीं होने से विरोध 1941
भारत में लोकतंत्र है? भारत में लोकतंत्र नहीं है? सत्य क्या है? जब तक लोकतंत्र को प्रजासत्ताक या संसदीय सरकार के साथ तुलना करके उत्पन्न की गई अव्यवस्था दूर नहीं होगी तब तक इन प्रश्नो का हकारात्मक उत्तर नहीं दिया जा सकता.
2
लोकतंत्र एक प्रजासत्ताक से बिल्कुल अलग है. लोकतंत्र संसदीय सरकार से भी एकदन अलग है. लोकतंत्र की जड़ें सरकार, संसदीय या फिर अन्य किसी भी प्रकार में नहीं है. लोकतंत्र सरकार के प्रकार से विशेष है. यह प्राथमिक रुप से हिलमिलकर जीने की पद्धति है. लोकतंत्र की जड़ें सामाजिक संबंधो में, समाज बनानेवाले लोगो के संयुक्त जीवन के अर्थ में ढुंढ़नी होगी.
3
मुंबई विधान परिषद में "परम्परागत पद कानून सुधार विधेयक" पर बाबासाहब ने दिया वक्तव्य 1928
"समाज" शब्द का क्या अर्थ है? संक्षिप्त में कहे तो जब हम समाज की बात करते है तो हम उसके चरित्र को समझ सकते है. एक उदेश्य रखनेवाला प्रशंसापात्र समुदाय और कल्याण की इच्छा, सार्वजनिक हितों के लिये वफादारी और पारस्परिक सहानुभूति और सहकार – यह है समाज की एकता के गुण.
4
अस्पृश्यता निवारण के लिये एस. के. बोले का संकल्प मुंबई विधानसभा परिषद में पारित 1923
एक समाज के लिये जरुरी गुण भारतीय समाज में है? भारतीय समाज व्यक्तिओं का नहीं बना. यह जातिओ का बेशुमार झुंड है, जो अपने निजी जीवन में अलगाववादी है, जिनके पास बांटने के लिये समान अनुभव नहीं है और सहानुभूति का बंधन नहीं है.
5
मुंबई विधान परिषद में सायमन कमिशन से सहकार के लिये समिति में बाबासाहब चुने गये 1928
6
डॉ. अंबेडकर पर लिखे पत्र में गांधीजी ने वर्णव्यवस्था की वकालात की 1944
एक भारतीय चुनाव में किस तरह मत देता है? वह सिर्फ उसकी जाति के उम्मीदवार को मत देता है, दूसरे को नहीं. भारतीय कांग्रेस ने चुनाव हेतु के लिये जातिप्रथा का जितना उपयोग किया है, इतना उपयोग तो भारत में किसी दूसरे पक्ष ने नहीं किया. हकीकत में जातिप्रथा के अस्तित्व के सामने हल्ला मचानेवाली कांग्रेस ही उसको समर्थन देती है.
7
नयी दिल्ही में त्रिपक्षीय मजदूर परिषद को बाबासाहब ने संबोधित किया 1942
जातिप्रथा का अस्तित्व समाज और उसके द्वारा लोकतंत्र के आदर्शों के अस्तित्व का खुल्लेआम इन्कार है.
8
नागपुर में अखिल भारतीय बहिष्कृत वर्ग परिषद 1930
गुजरात के काविठा गांव में चार दलित बच्चों के स्कूल प्रवेश से नाराज सवर्णो ने अपने बच्चों को स्कूलो से उठा लिया 1935
उघोग क्षेत्र में जाओ... आप देखोगे कि सबसे अधिक वेतन प्राप्त करनेवोले टोच के सभी लोग उघोग के मालिक उघोगपति की जाति के हैं. बाकी लोग सीडी की अखिरी पायदान पर, पूरी जिंदगी, कम पगार में लटके रहते हैं. व्यापार के क्षेत्र में भी आपको यही चित्र देखने को मिलेगा. समग्र व्यापारी गृह एक ही जाति की छावनी है. उसके दरवाजे पर बोर्ड लटकता है: अन्य लोगों के लिये "नो एन्ट्री".
9
सयाजीराव ने देवास की विक्टोरिया हाईस्कूल की मुलाकात ली 1901
सखावत के क्षेत्र में जाये. एक या दो अपवाद के अलावा भारत में सखावत जातिवादी है. अगर कोई पारसी मरे, तो अपनी मिलकत पारसीओं के लिये छोड जाता है. कोई जैन मरे तो उसका पैसा जैनों के लिये छोड जाता है. कोई ब्राह्मण मरे तो उसकी मिलकत ब्राह्मणों के लिये छोड जाता है. उस प्रकार दलितों और वंचितों को राजनीति, उघोग, व्यापार और शिक्षण में कोई स्थान नहीं है.
10
जातिप्रथा के कुछ विशिष्ट लक्षणों की दुष्ट असरें लोकतंत्र से टकराती है. जातिप्रथा का ऐसा खास लक्षण है, "क्रमिक असमनता". जातिओं का दरजा समान नहीं है. यह एक-दूसरे के उपर खडी है. यह एक-दूसरे की इर्ष्या करती है. यह जातिप्रथा का सबसे घातक असर करनेवाला लक्षण है.
11
सांसद हीरालाल पर लिखे पत्र में गृह राज्यमंत्री योगेन्द्र मकवाना ने बताया कि आरक्षण आंदोलन में गुजरात समाचार के वृतांत सही थे, ऐसी गुजरात सरकार की प्रस्तुती थी 1981
क्या शिक्षण जाति को नष्ट कर सकता है? उत्तर "हां" है और "ना" भी. आज जिस तरह शिक्षण दिया जाता है, उसका जाति पर कोई असर नहीं है. जाति वैसी की वैसी ही रहेगी. उसका जगमगाता उदाहरण ब्राह्मण जाति है. उसके सौ प्रतिशत शिक्षित, ना, उसका बहुमत अत्यंत शिक्षित है, फिर भी कोई भी ब्राह्मण खुद को जाति का विरोधी नहीं बताता.
12
13
अहिल्याबाई होलकर स्मृति दिन 1795
मेरे मन में इस बात की थोडी सी भी शंका नहीं है कि संसदीय लोकतंत्र को करार की स्वतंत्रता के विचार ने बर्बाद कर दिया है. यह विचार को स्वतंत्रता के नाम पर पवित्र बनाया गया और स्वीकार किया गया. संसदीय लोकतंत्र ने आर्थिक असमानता को ध्यान में लिया नहीं और करार करनेवाले पक्षकार असमान हो तो ऐसे करार के परिणाम को जांच करने की कोशिश नहीं की.
14
गांधीजी के साथ प्रथम मुलाकात 1931
संसदीय लोकतंत्र लश्करी शासकों के देश में निष्फल गया है क्योंकि यह अत्यंत धीमी गति से चलनेवाला यंत्र है. यह त्वरित कदम को विलंबित करता है. संसदीय लोकतंत्र में कारोबारी के मनपसंद कानून को पारित नहीं करके धारासभा कारोबारी को स्थागित कर सकती है. और धारासभा ऐसा ना करे तो न्यायतंत्र कानून को गेरकानूनी जाहिर करके कारोबारी को मुश्केली में डाल सकता है.
15
दूसरी गोलमेजी परिषद में भाग लेने के लिये मुंबई से जहाज में प्रयाण 1931
स्वतंत्र मजदूर पक्ष की स्थापना 1936
संसदीय लोकतंत्र ने स्वतंत्रता के लिये उत्कंठा विकसीत की थी. उसने कभी भी असमानता के पक्ष में सिर नहीं हिलाया. वह समानता का महत्व समझने में निष्फल गया इतना ही नहीं स्वतंत्रता और समानता के बीच संतुलन बनाने का भी प्रयत्न उसने नहीं किया. परिणाम स्वरुप स्वतंत्रता समानता को निगलती रही और पीछे रहे गए असमानता के संतान.
16
मुस्लिम लीग का डायरेक्ट एक्शन दिन 1946
लोग स्वंय शासन नहीं करते. वे सरकार की रचना करते हैं, उसे शासन करने के लिए छोड देते है और भूल जाते है कि वह उनकी सरकार नहीं है. इस परिस्थिति में संसदीय लोकतंत्र कभी भी लोगों की, लोगो के द्वारा चलनेवाली सरकार नहीं बना है और इसलिये ही वह कभी लोगो के लिये चलती सरकार बना नहीं है.
17
दलितों को पृथक निर्वाचन देने का ब्रिटीश सरकार का निर्णय 1932
संसदीय लोकतंत्र, एक लोकप्रिय सरकार का आभूषण होने के बावजूद भी, वास्तव में एक वंशपरंपरागत रैयत वर्ग पर एक वंशपरंपरागत शासक वर्ग द्वारा चलाई जानेवाली सरकार है. राजकीय जीवन के इस जहरीले संगठन ने संसदीय लोकतंत्र को दुःखद और निष्फल बनाया है. इसी कारण से ही संसदीय लोकतंत्र के द्वारा आम आदमी को दिए गए स्वतंत्रता, संपति और सूख के वचन पूरे नहीं हो सके.
18
ब्रिटीश प्रधानमंत्री पर गांधीजी का पत्र, पृथक निर्वाचन के खिलाफ आमरणांत उपवास करने की धमकी दी 1932
संसदीय लोकतंत्र यानि क्या? वोल्टर बेगहोट की ब्रिटीश संविधान के उपर एक किताब है. उसने संसदीय लोकतंत्र का विचार एक वाक्य में रख दिया है. वे कहते है, संसदीय लोकतंत्र का अर्थ है, चर्चा द्वारा सरकार, मुष्टीप्रहार द्वारा नहीं.
19
20
बच्चों की बलि चढाने पर कानून से प्रतिबंध 1802
संसदीय कार्यवाही के बारे में बहुत नियम है .... निजी मतदान की अभी प्रचलित व्यवस्था भी हमारे लिये नयी नही है. बौद्ध संघो में इस प्रथा का अनुसरण किया जाता था. वे 'सालपत्रक ग्राहक' नाम के मतपत्रक रखते थे.
21
वडोदरा राज्य की शिष्यवृत्ति की अवधि पूरी होते ही अभ्यास अधूरा छोडकर बाबासाहब का स्वदेश आगमन, राष्ट्रीय संरक्षण सलाहकार समिति में नियुक्ति 1917
संसदीय लोकतंत्र आज हमारे लिये अपरिचित है. परन्तु एक समय भारत में संसदीय संस्थाए थी. प्राचीन समय में भारत बहुत विकसित था. आप महापिरिनिर्वाण के श्लोक पढ़ोगे तो, आप को मेरे मुद्दे के समर्थन के लिये पर्याप्त सबूत मिल जायेंगे.
22
बाबासाहब स्थापित स्वतंत्र मजदूर पक्ष का घोषणापत्र प्रसिद्ध हुआ 1936
किसी ने ऐसा भी कहा है कि संसदीय लोकतंत्र बहुमत (मेजोरीटी) का लोकतंत्र है. यह सच है कि हमारे कायदे में ऐसा नियम है कि सभी प्रश्न बहुमत से नक्की होंगे. परन्तु मैं इस सिद्धांत के बारे में अत्यंत सावधान रहने को कह सकता हूँ. यह सिद्धांत हमने प्राप्त किए अत्यंत खतरनाक सिद्धांतो में से एक है.
23
प्रवास के दौरान स्पृश्य तांगेवाले ने घोड़ागाड़ी में बैठने नहीं दिया, बिनअनुभवी दलित ने तांगा चलाया और घोडा भडका. बाबासाहब की पांव की हड्डी टूट गई.
बहुमत (मेजोरीटी) का नियम सिर्फ सुविधा के लिये शामिल किया गया है. परन्तु ईश्वर के लिये उस सिद्धांत पर ज्यादा भरोसा मत करना. आप बहुत मुसीबतें खडी करोगे. एक निश्चित अर्थ में बहुमत (मेजोरीटी) का नियम गलत है.
24
वन संरक्षण के लिये शाहु महाराज का हुकम 1895
ये मत भूल जाना कि मूलभूत अधिकारों का अर्थ ऐसा है कि निश्चित बात करने के लिये बहुमत (मेजरीटी) का कोई अधिकार नहीं है. मूलभूत अधिकारो का यह अर्थ है. संविधान में मूलभूत अधिकार एक निश्चित कार्य करने की बहुमत (मेजोरीटी) की सत्ता पर निरपवाद मर्यादा लादता है.
25
हिन्दु सगीर और संरक्षण विधेयक पारित 1956
असंख्य शाखा-प्रशाखा रखनेवाले हमारे जैसे संकुल समाज में कोई एक सार्वभौम इलाज संभव नहीं है.
26
कोलकाता में दलित संगठन के द्वारा बाबासाहब का सत्कार 1944
27
मधर टेरेसा जन्मजयंती 1910
यह भी सच है कि जो समाज उसे विरासत में मिले कुछ पवित्र माने जाते विचारो में अदला-बदली करने की स्थिति में होता नहीं है, ऐसा समाज आखिर में नष्ट हो जाता है.
28
महार परिषद के संकल्प का अमल करने के लिये वांदरा में सभा 1937
कोई भी संस्था या समाज समय और परिस्थिति की जरुरत के अनुसार अपने विचारो में अदला-बदली करने के लिये मुक्त ना हो तो अस्तिव के संघर्ष में टिक नहीं सकते.
29
संविधान की मुसदा समिति में बाबासाहब की नियुक्ति 1947
आज तो एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता है, जो पूरे साहस के साथ हिन्दुओं को कह सके, संसदीय लोकतंत्र से सावधान रहो. जैसा दिखता है वैसा वह श्रेष्ठ ढांचा नहीं है.
30
संविधान मुसदा समिति की प्रथम बैठक, अध्यक्ष पद पर डॉ. अंबेडकर की सर्वसंमति से नियुक्ति 1947
प्रत्येक देश में दो वर्गों का अस्तित्व हैः शासक वर्ग और दास वर्ग. दोनों के बीच लगातार सत्ता संघर्ष चालू ही रहता है.
31
शासकवर्ग को सत्ता और अधिकार के स्थानों को प्राप्त करने में पुख्त मताधिकार और बारबार आते चुनाव अवरोधरुप नहीं बनते.
सितम्बर – कामदार वर्ग
1
विश्व शांति परिषद के लिये लिखा गया निबंध ‘हिन्द के अस्पृश्यो के प्रश्न’ प्रकाशित 1943
सभी मजदूर एक है, एक वर्ग बनाते है, यह एक ऐसा आदर्श है जिसको हासिल करना है. और उसे हकीकत मानना यह सबसे बडी भूल है.
2
सयाजीराव मद्रास यात्रा पर, गुजराती समाज के साथ गोष्टि 1902
3
बाबासाहब के पुत्र यशवंत (भैयासाहब) का स्मृति दिन
ब्राह्मणवाद इतना अधिक सर्वव्यापी है कि वह आर्थिक तकों के क्षेत्र पर भी असर करता है. दलित वर्ग के कामदारों को बिनदलित वर्ग के कामदारों की तुलना में कितने अवसर मिलते है?
4
समाज समता संघ की स्थापना 1927
मैंने मजदूर नेताओं को पूंजीवाद के लिये भाषण देते हुए देखा है. परन्तु मैंने किसी मजदूर नेता को मजदूरो के बीच ब्राह्मणवाद के विषय में बोलते हुए सुना नहीं है.
5
नरोडा (अहमदाबाद) मोटर सत्याग्रह 1931
हमारे उपर आरोप लगानेवाले कामदार नेता निःशंक निश्चित भ्रमों से पीडीत है. उन्होने कार्ल मार्क्स में पढा है कि सिर्फ दो वर्ग है, मालिक और कामदार और मार्कस को पढने के बाद यह सीधे तौर पर मान लेते है कि भारत में सिर्फ दो वर्ग है, मालिक और कामदार. और पूंजीवाद को नाबूद करने के लिये उनके मिशन में आगे बढते है.
6
अस्पृश्यता संबंधित गुनाहो के विधेयक पर राजसभा में वक्तव्य, अनु. जाति पंच के अहेवाल पर चर्चा 1954
साम्यवाद के बारे में मैंने जितने पुस्तक पढे है उनकी संख्या सभी साम्यवादी नेताओं के द्वारा पढे गए पुस्तकों की कुल संख्या से भी ज्यादा है. परन्तु मेरा अभिप्राय है कि साम्यवादीओं ने कभी भी इस (जाति के) प्रश्न के व्यवहारिक पहलूओं की ओर ध्यान नहीं दिया.
7
दूसरी गोलमेजी परिषद का प्रारंभ 1931
मेरे मंतव्य के अनुसार इस देश के कामदारों को दो दुश्मनों के साथ पाला पडनेवाला है. ये दुश्मन है: ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद.
8
ब्राह्मणवाद यानि एक समुदाय के रुप में ब्राह्मणो के हित, सत्ता और विशेषाधिकार ऐसा अर्थ मैं नहीं करता. ब्राह्मणवाद यानि मेरे मत अनुसार स्वतंत्रता, समानता और बंधुता की भावना का इन्कार, इस अर्थ में ब्राह्मणवाद सभी वर्गो में फैला है और सिर्फ ब्राह्मणों के लिये सीमित नहीं है, भले ही ब्राह्मण ने उसका सर्जन क्यों ना किया हो.
9
संविधान सभा का प्रांरभ, मुस्लिम लीग ने बंगाल विधानसभा में से डॉ. अंबेडकर को भेजा 1946
10
मुंबई विधानसभा में विधानसभा की कार्यवाही पर वक्तव्य 1938
मजदूर वर्गे ने सरकार पर कब्जा जमाने के लिये किसी महत्वकांक्षा का विकास नहीं किया है और उनके हितो के रक्षण के अनिवार्य साधन के रुप में सरकार को अंकुश में लेने की जरुरत भी उनके गले नहीं उतरती. सचमुच, सरकार में उन्हे जरा सा भी रस नहीं है. सभी करुणांतिकाओ में यह सबसे बडी और सबसे दुःखदायी है.
11
उधार लिये रुः 2000 को चुकाने के लिये बंधुआ मजदूरी में फंसे जवाभाई (वरसडा, कांकरेज) की हत्या 1982
मजदूर वर्ग को 'रुसो का सामाजिक करार', मार्कस का 'साम्यवादी ढिंढोरा', पोप लियो तेरहवाँ का 'मजदूर स्थिति के बारे में परिपत्र' और स्वतंत्रता के बारे में जहोन मील को पढ़ना चाहिये. आधुनिक समय के सामाजिक और सरकारी संगठन के यह चार बूनियादी कार्यक्रमलक्षी दस्तावेज है.
12
परिक्षितलाल मजमुदार स्मृति दिन 1965
मैं ट्रेड युनियन के विरुद्ध में नहीं हुं. यह अत्यंत उपयोगी उदेश्य को पूरा करते है, परन्तु ट्रेड युनियन मजदूर वर्ग की सभी मुश्किलों के लिये अक्सीर दवा है ऐसा मान लेना यह सबसे बडी भूल होगी.
13
ट्रेड युनियन, चाहे कितने शक्तिशाली हो तो भी, पूंजीवाद को बेहतर रुप के चलाने के लिये पूंजीवादियों को मजबूर नहीं कर सकते. ट्रेड युनियन तब और अधिक शक्तिशाली बन सकता है जब एक मजदूर सरकार उनके पीछे हो. सरकार के उपर अंकुश ये ही मजदूरवर्ग का उदेश्य होना चाहिये.
14
'बुद्ध और उनका धम्म' पुस्तक की 500 नकले खरीदने के लिये सरकार से बाबासाहब का अनुरोध. उत्तर देते हुए पत्र में नेहरु ने पुस्तक खरीदने का इन्कार किया 1956
हर तरफ से कंगाल ऐसे कामदारो के पास बचाने के लिये बहुत थोडा होता है, फिर भी राष्ट्रवाद के तथाकथित उदेश्यो के लिये बडे पैमाने पर वे अपने सर्वस्व की कुर्बानी देते है. उन्होने कभी इस बात को पूछने की कोशिश नहीं की कि जिस राष्ट्रवाद के लिये उन्हे आहूति देनी है, उस राष्ट्रवाद की जब स्थापना होगी तब उन्हे सामाजिक और आर्थिक न्याय मिलेगा भी या नहीं.
15
मुंबई विधान परिषद में औघोगिक विवाद विधेयक पर वक्तव्य 1938
दलित पेंथर के अग्रणी नारण वोरा का स्मृति दिन 1986
बाबासाहब के समर्पित साथी नानकचंद रत्तु स्मृति दिन 2001
सफल राष्ट्रवाद में से पेदा हुआ और मजदूर वर्ग के बलिदानों पर पनपता हुआ मुक्त राष्ट्र ज्यादातर उनके मालिकों के वर्चस्व के तहत कामदार वर्गों का दुश्मन बनता है. शोषण का यह सबसे बदतर प्रकार है, जिसका मजदूर वर्ग ने स्वयं को भोग बना दिया है.
16
7
पेरियार रामास्वामी जन्मदिन 1879
खेती प्रथा नाबूदी विधेयक पर वक्तव्य 1937
कामदार वर्गों को हिन्दु महासभा या कांग्रेस जैसे सांप्रदायिक और पूंजीवादी राजकीय पक्षो से दूर रहेना चाहिये. मजदूर वर्ग कांग्रेस और महासभा के चगुंल में से अपने आप को मुक्त करके भारत की आजादी की लडाई लड सकता है और राष्ट्रवाद के नाम से होनेवाले विश्वासघात से अपने आप को बचा सकते है.
18
अगर कामदार वर्ग को संसदीय लोकतंत्र में ही जीना है, तो उन्हे इसको अपने फायदो में परिवर्तित करने के सबसे संभव उपायो को ढुंढना ही होगा. सबसे पहले तो भारत के मजदूर वर्ग का अंतिम उदेश्य सिर्फ ट्रेड युनियन की स्थापना का ही होना नहीं चाहिये. उन्हे मजदूर वर्ग को शासन की बागडोर सोपनें का उदेश्य जाहिर करना चाहिये.
19
जिसमें इस तरह से घटे जीवनधोरण के सर्जन से फायदा निजी व्यक्तिओ के हाथ में जानेवाला है, उस अर्थतंत्र में कामदारों को अपना जीवनधोरण घटाने में संमत होने के लिये कैसे कहा जा सकता है?
20
यरवडा जेल में गांधीजी के आमरणांत उपवास का प्रारंभ 1932
जहां इन्डस्ट्री का मुनाफा राज्य के पास जाता हो, वहां प्रजा को अल्पकालीन समय के लिये, वेतनों और अन्य जीवनधोरण को घटाने के लिये कहा जा सकता है, जिससे सार्वजनिक क्षेत्र के उधोग स्थिर हो सके. अंत में तो उधोग राज्य का ही है और राज्य की समृद्धि में हिस्सेदारी मिल सकती है ऐसा जानते हुए मजदूर को ऐसा बलिदान देने में कोई आपति नहीं हो सकती.
21
अगर युद्ध के पीछे व्यय की गई पूंजी जनता के कल्याण में लगाई गई होती, तो कितने बेघर लोगों के लिये अच्छे-खासे घर बन सकते थे, कितने नग्न लोगों को पर्याप्त कपडा दिया जा सकता था, कितने भूखे स्त्री-पुरुषों को संपुर्ण पोषण मिल सकता था, कितने बीमार इंसानो को स्वास्थ्य प्रदान किया जा सकता था, उसका उत्तर देने के लिये राजकीय नेता से कामदार वर्ग को पूछना चाहिये.
22
मद्रास महानगरपालिका ने डॉ. अंबेडकर को सम्मानपत्र दिया 1944
कामदार वर्ग श्रीमंत वर्ग को अत्यंत प्रसंगोचित प्रश्न भी पूछ सकते है, कि अगर आपको युद्ध की लागत पूरी करने के लिये कर भरने में कोई दिक्कत नहीं है तो मजदूर वर्ग का जीवनधोरण उंचे ले जाने के हेतु से एकत्रित निधि का विरोध क्यों करते हो?
23
मद्रास सधर्न मराठा रेलवे के सवर्ण दलित कामदारो ने डॉ. अंबेडकरको सम्मानपत्र दिया 1944
24
महात्मा जोतीबा फूले ने की सत्यशोधक सभा की स्थापना 1873
पूना करार दिन, सामाजिक-आर्थिक गुलाम दलितों को स्वतंत्र भारत में राजकीय गुलाम बनाने की संसदीय प्रक्रिया का प्रारंभ 1932
हडताल के लिये शिक्षा करना यह कामदारों को गुलाम बनाने से विशेष कुछ भी नहीं है. गुलामी क्या है? अमरीका के संविधान में दी गई व्याख्या के अनुसार गुलामी दूसरा कुछ भी नहीं, अनिवार्य नौकरी है.
25
चीरनेर केस में कांग्रेसी कार्यकारो का केस बाबासाहब लडे 1930
मुंबई में हुई सवर्ण हिन्दु नेताओं की सभा ने अस्पृश्यता नाबूदी का किया संकल्प 1932
नौकरी करार का भंग यह कोई अपराध नहीं है ...... यह सिर्फ एक दीवानी कृत्य है ...... भारतीय विधान परिषद ने नौकरी करार के भंग को अपराध नहीं माना है, क्योंकि नौकरी करने के लिये बाध्य करना यानि उसे गुलाम बनाना (1938)
26
ब्रिटीश मंत्रिमंडल ने पुना करार को मंजूरी दी 1931
हडताल आजादी के अधिकार का दूसरा नाम है. अपनी मनचाही शर्त पर नोकरी करने की आजादी का व्यक्ति को अधिकार है, दूसरा कुछ नहीं.
27
नेहरु मंत्रीमडंल में से कानून मंत्री पद से इस्तीफा 1951
सांबरडा की लडत के सेनानी प्रा.पानाचंद परमार का स्मृति दिन
अगर आप इस बात स्वीकार करते हो कि स्वतंत्रता का अधिकार दैवी अधिकार है, तो मेरी दलील यह है कि हडताल का अधिकार भी दैवी अधिकार है.
28
शहीद भगतसिंह जयंती 1905
गांधीजी के अनुरोध से छुआछूत निवारण संघ की स्थापना, बाद में उसका नाम रखा गया हरिजन सेवक संध 1932
इस (औधोगिक विवाद) विधेयक हडताल को शिक्षापात्र ठहराकर मजदूरों को गुलामी की स्थिति में ला रहा है. मेरे मत अनुसार, वास्तव में इस विधेयक को कामदार नागरिक स्वातंत्र्य नाबूदी विधेयक कहना चाहिये.
29
30
लंडन के स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में डी. एससी. डिग्री में प्रवेश 1920
कोई भी व्यक्ति गंभीरतापूर्वक कह सकता है कि लिपस्टीक उघोग जीवन के लिये आवश्यक है और इस उघोग के कामदारो के हडताल के अधिकार पर कटौती करना चाहिये, क्योंकि कुछ औरतों को उनके होठों पर मनपंसद रंग लगाने के आंनद से वंचित रखा गया है?
अक्टूबर – तीसरा पक्ष
1
शाहु महाराज ने दलितो के लिये पाठशालाओं का प्रारंभ किया 1919
मुंबई विधान परिषद में मुंबई युनिवर्सिटी कानून सुधार विधेयक पर वक्तव्य 1927
राजकीय सत्ता सभी सामाजिक प्रगति की चाबी है और अनुसूचित जातियां एक तीसरे पक्ष के स्वरुप में खुद को सगंठित करके सत्ता हांसिल कर सकती है और कांग्रेस तथा समाजवादी जैसे प्रतिस्पर्धी पक्षों के बीच सत्ता का संतुलन बनाये रखे तो अपनी मुक्ति हांसिल कर सकती है. (1948)
2
गांधी जयंती 1869
शिक्षण, जीवन निर्वाह के साधन, संगठन की शक्ति और बुद्धि से वंचित रखे गये कामदार वर्ग को गुलाम बनानेवाला लोकतंत्र वास्तव में लोकतंत्र नहीं है, बल्कि लोकतंत्र का मजाक है.
3
"मेरा वैज्ञानिक तत्वज्ञान" आकाशवाणी पर बाबासाहब का वक्तव्य
"मेरा सामाजिक तत्वज्ञान: स्वातंत्र्य समता बंधुता" सूत्र दिया 1945
रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना 1957
अनुसूचित जातियां कांग्रेस में जुडकर सत्ता को हांसिल नहीं कर सकती. यह एक बडा संगठन है और अगर हम कांग्रेस से जुडेंगे तो, हम समुद्र में एक टीपे के बराबर होगे. कांग्रेसी अत्यंत अंहकारी है और (उनके) संगठन में जुडकर हम अपने आप को उपर नहीं ले जा सकते. कांग्रेस में जुडकर हम अपने दुश्मनो की संख्या में बढोतरी ही करेंगे.
4
प्रथम गोलमेजी परिषद में भाग लेने के लिये रवाना 1930
धम्मचक्र प्रवर्तन के दिन पूना में सभा 1945
कांग्रेस जलता हुआ घर है और हम उसमें जुडकर समृद्ध नहीं हो सकते, वह थोडे ही वर्षो में चकनाचूर हो जाये तो शायद मुझे इसका कोई आश्चर्य नहीं होगा. समाजवादी कांग्रेस से बहार निकल गये है, जिससे कांग्रेस निश्चित रुप से कमजोर होगी.
5
शेडयुल्ड कास्ट फेडरेशन का घोषणा-पत्र प्रसिद्ध 1951
हमें तीसरे पक्ष के रुप में संगठित होना है, जिससे कांग्रेस और समाजवादी निरपेक्ष बहुमत प्राप्त ना कर सके. वो मतदान की भीख मांगने के लिये हमारे पांवो को पकडने आयेंगे और तब हम सत्ता का संतुलन हाथ में रखेंगे और हमें राजकीय समर्थन देने के लिये उन्हे अपनी शर्तो को स्वीकार करने के लिये बाध्य करेंगे.
6
मुंबई विधानसभा में ग्राम पंचायत विधेयक पर बाबासाहब का वक्तव्य 1932
कांग्रेस की सरकार के साथ जुडने से अनुसूचित जातिओं में बहुत बडी दुविधा का सर्जन हुआ और मैं इन सभी आशंकाओ को दूर करना चाहता हूँ. अंग्रेजो ने उनकी घोषणाओं का पालन किया नहीं था और वे सत्ता को सोंपने के लिये सिर्फ हिन्दु, मुस्लिम और शीख को ही गिनती में लेते थे.
7
औघोगिक विवाद कानून के विरुद्ध बाबासाहब के स्वतंत्र मजदूर पक्ष और मुंबई प्रांत ट्रेड युनियन कांग्रेस ने दिया हडताल का एलान 1938
8
दलितों के छात्रालयों को मदद करने के लिये अंबेडकर की अपील के प्रतिभाव में सरकार ने योजना जाहिर की. 1928
स्वतंत्र मजदूर पक्ष के विकास के अवरोध में आनेवाली समस्या सामाजिक है, राजकीय नहीं है. उसका केन्द्र दलित वर्गों का बना हुआ है यह हकीकत ही एक मात्र ऐसी बात है, जो उसकी वृद्धि और विस्तरण के मार्ग में बाधा डाल रही है. दलित वर्गों जैसे नीचले वर्गों के लोगों के साथ नहीं जुडने की सामान्य भावना ने सवर्ण हिन्दु कामदारो को आई. एल. पी. में जुडने से रोका है.
9
धर्मानंद कोसांबी जयंती यरवडा जेल में गांधीजी की मुलाकात 1932
आप को एक नेता, एक पक्ष और एक कार्यक्रम के तहत संगठित होना ही चाहिये. आप सभी जाति के भेदभाव को दूर करें और फेडरेशन के झंडे के नीचे संगठित हो.
10
मुंबई विधान परिषद में "छोटे जमीनदारो को राहत विधेयक’ पर बाबासाहब का वक्तव्य
शुद्र कौन थे? ग्रंथ प्रसिद्ध हुआ 1946
आई. एल. पी. खेती की उत्पादकता बढाने के लिये जमीन गिरवी बेंक, कृषि उत्पाद सहकारी मंडलियां और मार्केटिंग मंडलियां रचने की कामगीरी हाथ में लेगा.
11
केन्द्रीय प्रधानमंडल में से इस्तीफा क्यों दिया इसके बारे में स्पष्टता करते हुए बाबासाहब के जिस निवेदन को लोकसभा में पढने नहीं दिया गया था, उस निवेदन को प्रसिद्ध किया 1955
आई. एल. पी. ऐसा मानती है कि जमीनों के टुकडे होना यह पूंजी के उपयोग तथा बुवाई की संवर्घित पद्धतिओं के मार्ग में बहुत बडी अडचन है और इसलिए किसान समुदाय की गरीबी का सीधा कारण है.
12
राममनोहर लोहिया स्मृति दिन 1967
आई. एल. पी. को जहाँ जरुरत लगेगी वहाँ लोगो के हित में राज्य संचालन और राज्य की मालिकी के उघोग के सिद्धांत का स्वीकार करती है.
13
'I was born as a Hindu, but I will not die as a Hindu'
येवला की ऐतिहसिक परिषद में 10,000 अस्पृश्यों की उपस्थिति. बाबासाहब ने की धर्मान्तर घोषणा. 1935
(आई. एल. पी.) लोगो की कार्यक्षमता और उत्पादकता क्षमता को बढाने के लिये टेक्नीकल शिक्षण का सघन कार्यक्रम हाथ में लेगी.
14
नागपुर में लाखो अनुयायीओं को बौद्ध धर्म की दीक्षा 1956
आपको एक नेता, एक पक्ष और एक कार्यक्रम के तहत संगठित होना चाहिये. आप जाति के सभी भेदभाव को दूर करें और फेडरेशन के झण्डे के तले संगठित हो.
15
नागपुर में महानगरपालिका ने डॉ. अंबेडकर को सम्मानपत्र दिया 1956
कांग्रेसी समाजवादी कहते है कि वह समाजवाद लाना चाहते है. कांग्रेस की राइटिस्ट (मूडीवादी) छावनी को बदलकर समाजवाद लाने की आशा वो कैसे रख सकते है? अगर समाजवाद लाना ही है तो लोगो में उसका प्रचार करना और उन्हे इस हेतु के लिये संगठित करना यह एकमात्र मार्ग है. समाजवाद वर्गों को फुसलाने से आनेवाले नहीं है.
16
चांदा में बौद्ध दीक्षा समारोह 1956
हर प्रांत के बजट में अस्पृश्यों के शिक्षण के लिये हर साल निश्चीत रकम अलग रखने का संविधान में प्रावधान रखने की मांग आपको करनी चाहिये.
17
मैं शर्मिन्दा हूँ. कुछ लोग यह बात समझ नहीं सकते कि कांग्रेस की राइटिस्ट (मूडीवादी) छावनी साम्राज्यवाद का इस्तेमाल कामदारो के अलग और स्वतंत्र संगठन को रोकने के लिए कर रही है. राजनीति वर्गीय सभानता आधरित होनी ही चाहिये. जो राजनीति वर्ग सभान नहीं है, वह बिलकुल दंभ है.
18
गोलमेजी परिषद में भारत की आजादी और दलितो की स्वतंत्रता के लिये भव्य कामगीरी
आपके पास अत्यंत सक्षम नेतागण होना चाहिये. आपके नेताओं में कोई भी राजकीय पक्ष के टोच के नेताओं की बरोबरी कर सके ऐसी हिंमत और क्षमता होनी चाहिये. कार्यक्षम नेता के बिना पक्ष शून्य है.
19
हंटर कमिशन को जोतीबा फूले ने शिक्षण के लिये आवेदन पत्र दिया 1843
कभी ना बिक सके ऐसी प्रामाणिक नेतागीरी किसी भी पक्ष में जिस तरह निर्णायक महत्व रखती है, उसी तरह पक्ष के निष्ठावान कार्यकर पक्ष की वृद्धि के लिये जरुरी दूसरी महत्व की चीज है.
20
अहमदाबाद के मंगलदास की चाली में बैठक 1938
विविध पक्षों को अलग प्रतीको को देने का समय आया तब हमारे पक्ष शेडयुल्ड कास्ट फेडरेशन को भी अखिल भारतीय पक्ष के रुप में गिना गया. अन्य पक्षो ने प्रतीक के रुप में बैल, घोडा, गधा जैसे प्रतीक पंसद किया, परन्तु मैंने आपकी सहुलियत के लिये अपना प्रतीक हाथी को पसंद किया, जिससे लोगों को अपने पक्ष के उम्मीदवारो को पहचानने में तकलीफ ना पडे.
21
नेताजी सुभाषचंद्र बोझ ने हिंद सरकार की स्थापना की 1943
22
अहमदाबाद के प्रेमाभाई होल में सभा को डॉ. अंबेडकर का संबोधन 1938
हमारी मतदान की शक्ति इतनी ताकतवर नहीं है और ज्यादातर संयुक्त मतदान की प्रथा है. यह हमारी स्थिति को अधिक बेढंगा बनाती है. जिससे हमें एक या दूसरे पक्ष के साथ जुडना होगा.
23
सायमन कमिशन के समक्ष दलितो को आबादी के आधार पर प्रतिनिधित्व देने की मांग 1928
मैंने तुम्हारे लिये घर बनाया है और उसे योग्य स्थिति में संभालना यह तुम्हारे हाथ में है. मैंने वृक्षों को लगाया है, आप उसे पानी दोगे तो उसके फलों को चख सकोगे और उसकी छाया भी ले सकोगे. अगर ऐसा नहीं करोगे तो धूप में बैठना होगा.
24
अस्पृश्यों ने आजादी की लडाई में भाग नहीं लिया है, इस कारण से नहीं कि वह ब्रिटीश शाहीवाद के प्यादे है, परन्तु उन्हे डर है कि भारत की आजादी हिन्दुओ के वर्चस्व को स्थापित करेगी और वह उनके जीवन, स्वतंत्रता और सुख प्राप्ति के द्वार को निश्चितरुप से और हमेंशा के लिये बंद कर देगी और उन्हे कठियारा तथा भिस्ती बना देगी.
25
मुंबई विधान परिषद में युद्ध में भाग लेने के बारे में वक्तव्य 1939
प्रथम तो आपको युनियन की कारोबारी में खास प्रतिनिधित्व प्राप्त करने का अनुग्रह रखना चाहिये, जिससे आपके खास प्रश्नो की तरफ युनियन का ध्यान जाये और उसको बल मिले. दुसरा, युनियन को आपकी तरफ से दिये जाते अनुदान की कुछ रकमों को अलग रखने का आग्रह रखना चाहिये, जिससे जरुरत पडे तो आपके प्रश्नो के लिए लडने में उसका उपयोग हो सके.
26
"देश के दुश्मन" बदनक्षी केस के बचाव में विजयी बने. वकीलात के क्षेत्र में प्रसिद्ध हुए 1925
डॉ. कूर्तकोटी (शंकराचार्य) के साथ डॉ. अंबेडकर की मुलाकात 1935
ब्राह्मणवाद का असर सिर्फ आंतर भोजन या आंतर लग्न जैसे सामाजिक अधिकारो तक सीमित नहीं था. अगर ऐसा होता तो किसीको ब्राह्मणवाद से एतराज नहीं होता. परन्तु यह सामाजिक अधिकारो से अलग ऐसे नागरिक अधिकारों को भी उसने अपने दायरे में शामिल कर लिया है. सार्वजनिक स्कूलों, सार्वजनिक कुएं, सार्वजनिक सुखाकारी के साधन, सार्वजनिक होटलों का उपयोग, यह सब नागरिक अधिकारो की बात है.
27
संविधान मुसदा समिति की कामगीरी का प्रांरभ. धर्मानंद कौशाम्बी ने बौद्ध धर्म स्वीकार करने के लिये बाबासाहब को समझाया 1935
राजकीय लोकतंत्र सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र के बिना सफल नहीं हो सकता.
28
मुंबई में ऋषि समाज ने सम्मानपत्र दिया 1932
29
मुंबई शहेर दलित फेडरेशन ने रु. 18000 की थेली अर्पण की 1954
इन सभी मिलो में सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि यह मेनेजरो के भतीजों के लिये स्वर्ग है, जहां सेंकडो निकम्मे लोगों को उंचे पगार पर नौकरी पर रखा गया है, सिर्फ इसलिये कि वह एक या दूसरे तरीके से मेनेजींग एजन्टो के साथ जुडे है.
30
होमी जहांगीर भाभा जयंती 1909
सभी राजकीय समाज दो वर्गो में बटा हुआ है. शासक और शासित. यह एक अनिष्ट है. अगर अनिष्ट यहां रुक जाये तो कोई बात नहीं है, परन्तु बदनसीबी से यह भेदभाव इतना दृढ़ और स्वीकृत हो जाता है कि शासक हंमेशा शासक वर्ग में से आता है और शासित कभी शासक बन नहीं पाते.
31
वल्लभभाई पटेल जयंती. इन्दिरा गांधी स्मृति दिन
पारसी मिलो में जाओ, वहाँ सेंकडो पारसीओं को नौकरी करते देखोगे, फिर भले ही वे काम के हो या ना हो, गुजरातीओं के द्वारा संचालित मिल में जाओ, सेंकडो गुजरातीओं को काम पर देखोगे, फिर भले ही उनकी जरुरत हो या ना हो, मिलो में नौकरी पर रखे गये ये लोग भले ही कार्यक्षम हो या ना हो, या फिर इनकी जरुरत ना हो, उन्हे निभाने के लिये मेनेजर कामदारो की कमाई का श्रेष्ठ हिस्सा छीन लेते है.
नवेम्बर – प्रांतिक विधान परिषद में प्रवचन
1
मैं अत्यंत भारपूर्वक कहता हूँ कि इन पिछडे समुदायों को सेनेट में प्रतिनिधित्व देने के लिये विधेयक नहीं दिया जायेगा तब तक, इस विधेयक की हमारे मन में किसी भी प्रकार की किंमत नहीं रहेगी और मैं इसके विरुद्ध मतदान करुँगा.
2
गोधरा में वाल्मिकी समाज का प्रथम संमेलन 1917
अगर सरकार में थोडी सी भी सच्चाई बची है, तो सरकार गरीब वर्गो को ऐसा नहीं कह सकती कि कर वसूल करने की उसकी ताकत नहीं है इस वजह से वह सुख-सुविधाओं की व्यवस्था नहीं कर सकती. ऐसी सरकार तो जितनी जल्दी पदभ्रष्ट हो उतनी जल्दी सब को शांति होगी.
3
एक अच्छी वजह ये है कि भारत में सभी धर्म अपने अनुयायीओ को यह आदेश देते है कि दारु पीना पाप है. धर्मो के कारण बहुत दंगे हुऐ होंगे, मगर इस बात में कोई शंका नहीं कि हिन्दु और मुस्लिम यह दोनों भारतीय धर्मो ने तथा जरथुस्त धर्म ने एक अच्छी बात यह कही है कि उन्होने ने ऐसी पाबंदी का फरमान किया है, जिसका हमारी प्रजा के बहुमत हिस्से ने चुस्ती से पालन किया है.
4
गुजरात मेघवाल समाज ने बाबासाहब का किया सम्मान 1932
संविधान सभा के समक्ष संविधान का मसौदा पेश किया 1948
5
जगीरदारी नाबूदी के लिये कमाठीपुरा मुंबई में 5000 महारों की सभा 1927
यह बजट मेरे लिये धनिक आदमी का बजट है. यह गरीब आदमी का बजट नहीं है. गरीब आदमी ज्यादा से ज्यादा मांगता है. धनिक मानवी को सरकार से स्वतंत्र रहने में कोई दिक्कत नहीं होती.
6
दलितो की जमीन छीनती हैदराबाद सरकार, 1700 दलितों की गिरफ्तारी 1953
मेरी जांच और मेरे अनुभव के आधार पर मुझे मालूम हुआ है कि शिष्यवृत्तियां देने की पद्धति सचमुच सार्वजनिक पूंजी का दुर्व्यय है. दलित वर्ग के वाली इतने अधिक गरीब और अज्ञानी है कि वह समझ नहीं पाते कि सरकार द्वारा दी जानेवाली मदद वास्तव में बच्चों के शिक्षण के लिये मदद है. माता-पिता शिष्यवृति को उनके खर्चो को निपटाने के लिये दी गई पारिवारिक मदद के रुप में देखते है.
7
तीसरी गोलमेजी परिषद में हिस्सा लेने के लिये बाबासाहब इग्लेंन्ड रवाना 1932
मुझे विश्वास है कि जो लोग सेनेट में चुने जायेगे वे उच्च वर्ग के होंगे और वे शिक्षण की मांग करने पिछडे वर्गो की कभी मदद नहीं करेगे.
8
परेल में समता सैनिक दल की सभा को डॉ. अंबेडकर का भाषण 1936
अगर मनुष्य सामाजिक रुप से आजाद नहीं है तो उसे आर्थिक रुप से आजाद होने दो.
9
मैं मानता हूँ कि सबसे अच्छी पद्धति यह है कि व्यवस्थित क्षेत्रो में सरकारी खेती का प्रारंभ हो और उसमें समाविष्ट छोटे पट्टों के मालिको को निजी संपत्ति का नाश किये बगैर खेती में जुडने को बाध्य करें.
10
मुंबई विधान परिषद में डॉ. अंबेडकरकी तरफ से पी. जे. रोहम का कुटुंब नियोजन के समर्थन में क्रांतिकारी प्रस्ताव 1938
हिन्दु धर्म द्वारा स्थापित सामाजिक और धार्मिक निरंकुशता ने ज्यादातर आम जनता को स्थायी दासत्व में रखा है. ऐसे दासत्व तले अगर उनका प्रारब्ध सह्य बनता है तो उसकी वजह यह है कि हिन्दु आनुवंशिक कानूनो ने धनिक वर्ग के शासन को पनपने नहीं दिया. महोदय, हम सामाजिक दासत्व में आर्थिक गुलामी को जोडना नहीं चाहते.
11
अस्पृश्यता नाबूदी प्रस्ताव पारित करने के लिये कांग्रेस से डिप्रेस्ड क्लासीस मिशन की सभा का अनुरोध 1917
12
बडे भाई बालाराम अंबेडकर की मृत्यु 1927
गोलमेजी परिषद का प्रारंभ 1930
त्रावणकोर के राजा का मंदिर प्रवेश के लिये घोषणापत्र 1936
इसमें कोई शंका का स्थान नहीं है कि कुछ उघोगो में मालिक स्त्रियों को काम पर रखते है क्योंकि उन्हे लगता है कि पुरुषों को काम पर रखने से जो फायदा होगा उससे ज्यादा फायदा स्त्रियों को रखने से होगा.
13
दलितो के पृथक निर्वाचन की मांग का विरोध करने के लिये गांधीजी का मुस्लिमो से अनुरोध 1931
मैं इस बात के लिये आश्वस्त हूँ कि व्यवस्थित कद के सहकारी खेतों की रचना से इस विधेयक में हम जो मांगते है वह तो हमें मिलेगा ही और छोटे खेतो के मालिकों को भी विनाश से बचा सकेंगे.
14
जवाहरलाल नेहरु जयंती 1889
छुआछुत निवारक संघ को दलितों के नागरिक अधिकारो के लिये आंदोलन करने का अनुरोध 1932
चुंकी, गैरकानूनी मंडली जिसकी हम उपेक्षा कर सकते है ऐसा कोई गुनाह तो नहीं हो सकती फिर भी यह निश्चित तौर पर ऐसा कोई गंभीर गुना नहीं है कि जिसके लिये कडी सजा करनी चाहिये.
15
संविधानसभा में बाबासाहब का ऐतिहासिक वक्तव्य 1946
डॉ. जहोन्सन ने कहा है, "देशभक्ति बदमाश लोगो का आखिरी आश्रयस्थान है." वह बहुत अच्छी तरह ऐसा भी कह सकते थे कि "राजकारण भी लुच्चे लोगो का आखिरी आश्रयस्थान है," और इस कारण से मैं यह नहीं मानता कि भारत में राजकारण बदमाश लोगों का आश्रयस्थान बने ऐसा होना चाहिये और यह कहने के लिये मैं खडा हुआ हूँ.
16
अनुसूचित जातिओ का प्रतिनिधित्व करनेवाले हम लोगो को महाराष्ट्रीयन या गुजराती या कर्णाटकी होने में किसी भी प्रकार का गर्व महसूस नहीं होता.
17
तीसरी गोलमजी परिषद का प्रारंभ 1932
कुछ लोग ऐसा कहते है कि हम भारतीय पहले है और हिन्दु बाद में अथवा मुस्लिम बाद में है तब मुझे यह अच्छा नहीं लगता. मुझे इससे तनीक भी संतोष नहीं है. मैं साफ साफ कहता हूँ कि इससे मुझे थोडा भी संतोष नहीं है.... मैं सभी लोगो को प्रथम भी भारतीय और अंत में भी भारतीय देखना चाहता हूँ. और दूसरा कुछ नहीं, परन्तु भारतीय ही देखना चाहता हूँ.
18
19
इन्दिरा गांधी जयंती 1917
मेरा कोई भी ट्रस्टी नहीं है, मैं स्वंय अपना ट्रस्टी हूँ. वह भले अपने संविधान का निर्माण करे, परन्तु हम अपना अधिकार मागेंगे. वे भले कोई भी विधेयक करे, परन्तु यह हमारे लिये सेइफगार्ड ही बस है या नहीं, यह तो दलित प्रतिनिधित्व नक्की करेगा.
20
काठमंडु में विश्व बौद्ध संमेलन, "बुद्ध और कार्ल मार्कस" विषय पर प्रवचन 1956
महोदय, लोगो को विधानमंडल में जुडने से रोकने के लिये 1930 में कांग्रेसीओ ने कौनसे नारे पुकारे थे? एक नारा था, जो मुझे याद है, "परिषद में जाना हराम है," परन्तु इतना ही काफी नहीं था. "परिषद में कौन जायेगा? ढेड जायेगा, चमार जायेगा," कांग्रेसियों ने ऐसे नारे भी पुकारे थे.
21
इस देश में मैं जो स्थिति देख रहा हूँ. समग्र भारत में रचे गये अलग-अलग मंत्रीमंडलो की राजकीय रचना को मैं देखता हूँ. जिससे मुझे एक बात ध्यान में आई है कि अस्पृश्य सामाजिक रूप से शुद्र है और कांग्रेस सरकार बनेगी तो स्थिति की अनिवार्यता ऐसी है कि आखिर में उसके परिणाम से अस्पृश्य राजकीय रुप से शुद्र बन जायेगे. और ये मैं सहन नहीं करुंगा. इस स्थिति को जड़ से उखाड फैंकने के लिये मैं खून के आखिरी कतरे तक लडूंगा.
22
फेडरेशन चुनाव प्रचार का प्रारंभ, परेल 1951
मैं जानता हूँ कि देश में लघुमती कोम का व्यक्ति जब उसकी कोम के अधिकारो के लिये लड़ने को तैयार होता है तब पूरा समूह उसके सामने खडा हो जाता है और उसे कोमवादी का लेबल दे देता है, भारतविरोधी लेबल नाम दे देता है, और उसे इस देश के विनाश के लिये काम करती नौकरशाही के किसी अमलदार के हाथ में खेलते पुत्तले का लेबल दे देता है.
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बौद्ध तीर्थ धामो की यात्रा 1956
मैं ऐसा कहता हूँ कि "मुझे मेरा सेइफगार्ड्स दो, जो मेरे लिये जरुरी हो" और आपकी लोकतंत्र अपने पास रख सकते है.
24
'बहिष्कृत भारत' पाक्षिक का नाम बदलकर 'जनता' रखा गया 1930
जब- जब देश और अस्पृश्य के हित के बीच संघर्ष होगा तब तब, मेरे लिये, अस्पृश्यों का स्थान देश के हित की अपेक्षा अग्रिम रहेगा. मैं जुलमगार बहुमत का साथ तो कभी भी नहीं देनेवाला हूँ, सिर्फ इस कारण से यह देश की बात करते रहते है. इस पक्ष का साथ मैं कभी नहीं देनेवाला, कारण कि यह सिर्फ देश की बाते किया करते है.
25
संविधान सभा को संबोधन 1948
शिवाजी पार्क में दो लाख लोगो की सभा को संबोधन 1951
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संविधान सभा ने संविधान को मंजूरी दी. डॉ. अंबेडकरके प्रदान को अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्रप्रसाद ने सराहा. 1949
कितने देशो और युगो के अनुभव से जन्म-नियंत्रण के लिये आत्मसंयम बिल्कुल निरर्थक साबित हुआ है.
27
डॉ. अंबेडकरके प्रमुखपद में सातवीं हिन्दी कामदार परिषद 1945
पाकिस्तान के दलितो को भारत में आने देने का अनुरोध किया 1947
देश और मेरे बीच देश अग्रिमस्थान पर रहेगा, देश और दलितो के बीच दलित अग्रिमस्थान पर ही रहेगे, देश को अग्रिमस्थान नहीं मिलेगा.
28
महात्मा ज्योतिराव फूले स्मृति दिन 1890
हम ऐसा मान लेते है कि आत्मसंयम से कुछ व्यक्ति जन्म-नियंत्रण ला सकते है तो भी, हम इस तरह का अंदाजा नहीं निकाल सकते कि दूसरे लोग उनके नक्शे-कदम पर चल सकेंगे.
29
गुरुजी गोविंद टी. परमार के अध्यक्षपद में साबरमती तट पर फेडरेशन परिषद 1945
ऐसा कहा जाता है कि हमारे लोग आध्यात्मवादी है, जब कि पश्चिमवासी भौतिकवादी है. अब तो इस रट को सुन-सुन कर कान पक गये है. हमारे लोग किस तरह से आध्यात्मावादी है? क्या हमारे लोगो ने दुनिया का त्याग किया है और साधु बन गये है? " ये सब माया है", "संसारी जीवन के प्रति आसक्ति छोड देनी चाहिये" ऐसा बारबार कहने से लोग क्या आध्यात्मावादी हो सकते है?
30
अहमदाबाद महानगर पालिका ने किया बाबासाहब का सार्वजनिक सम्मान 1945
सागर के साठ हजार पुत्र थे और सौ कौरव थे, दक्ष प्रजापति की सत्तावीस पुत्रियां थी और दुसरे कितने प्रसंग थे. जब सोचते है, तब कोई मान सकता है कि उस समय ब्रह्मचर्य का कोई पालन करता था?
डिसेम्बर - गांधीवाद
1
कुछ गांधीवादीओ ने गांधीवाद की विभावना रची है, जो नितान्त कल्पना है. इस विभावना के अनुसार गांधीवाद का अर्थ है, गांवों में वापस जाना और गांवों को स्वायत्त बनाना. यह गांधीवाद को सिर्फ प्रादेशिकतावाद की घटना बनाती है, परन्तु मुझे विश्वास है कि गांधीवाद प्रादेशिकतावाद जैसा सरल नहीं है या फिर इतना निर्दोष भी नहीं है.
2
भोपाल में युनियन कार्बाईड की जहरीली गेस से 33,000 लोगों की मृत्यु 1984
3
मालिको और कामदारो के बीच, धनिक और गरीब के बीच, जमीनदारो और काश्तकार के बीच, मालिक और नौकर के बीच आर्थिक संघर्ष का हल अत्यंत सरल है. मालिको स्वंय की संपत्ति से अपने आप को वंचित ना रखे. उन्हे तो इतना ही करना चाहिये कि गरीबों के ट्रस्टी के रुप में अपने आप को जाहिर करे. अलबत्ता यह ट्रस्ट स्वैच्छिक होगा और आध्यात्मिक कर्तव्य निभाता होगा.
4
सती प्रथा नाबूद कानून 1829
श्री गांधी संपति रखनेवाले वर्ग को दुःखी नहीं करना चाहता. वह तो उनके विरुद्ध के आंदोलन के भी विरोधी है. आर्थिक समानता के बारे में उनकी कोई वृत्ति नहीं है. संपत्ति रखनेवाले वर्ग का उल्लेख करते हुए गांधीजी ने हाल में ही कहा कि सोने का अण्डा देनेवाली मुर्गी को वो मारना नहीं चाहते.
5
'बुद्ध और उनका घम्म' ग्रंथ की प्रस्तावना 1956
आर्थिक दूषणों के गांधीवादी पृथक्करण में नया कुछ भी नहीं है. सिर्फ यंत्र तथा उसके उपर रची गई सभ्यता को उसका कारण मानते है.
6
बाबासाहब महानिर्वाण 1956
गांधीवाद का निर्माण करनेवाले विचार एकदम प्राथमिक है. उसमें प्रकृति के प्रति वापस मुडने की, पशु की तरह जिंदगी जीने की बात है. उसकी सरलता ही उसका एकमात्र गुण है. इससे आकर्षित होनेवाले सीधेसादे लोगों का विशाल समूह हमेशा अस्तित्व में होने से इस तरह का सरल विचार कभी नहीं मरता और उसे उपदेश देनेवाला कोई महामूर्ख होता ही है.
7
डॉ. अंबेडकर चैत्यभूमि के रुप में अब प्रसिद्ध हुई चोपाटी पर बौद्ध विधि के अनुसार अंतिम संस्कार 1956
गांधीवादी का अर्थतंत्र बिल्कुल निराशाजनक है, मिथ्या है. यंत्रो और आधुनिक संस्कृति ने अनेक दूषणो को जन्म दिया है इस हकीकत को स्वीकार कर सकते है, परन्तु यह दूषण उसके विरुद्ध की दलील नहीं है. क्योंकि, यह दूषण यंत्र या फिर आधुनिक संस्कृति के कारण जन्मे नहीं है. समाज की गलत व्यवस्था ने निजी मिलकत और निजी लाभ के पीछे लगी स्पर्धा को पवित्र माना है, जिससे गलत व्यवस्था के कारण इनका जन्म हुआ है.
8
कालुपुर स्वामिनारायण मंदिर के ट्रस्टियों की मंदिर प्रवेश के मामले में अदालत में हार 1956
अगर यंत्र और आधुनिक संस्कृति ने सभी को लाभ नहीं दिया हो तो उसका हल यंत्रो और आधुनिक संस्कृति के तिरस्कार में नहीं है, परन्तु समाज का तंत्र सुधारने में है, जिससे उसके लाभों को दूसरे लोग छीन ना ले परन्तु सब को मिले.
9
10
कानून प्रधानपद से इस्तीफा देने के बाद सर्वोच्च अदालत में वकीलात शुरु की 1951
गांधीवाद के तहत सामान्य मनुष्य को थोडी सी रकम के लिये सतत परिश्रम करना ही होगा और पशु बनकर रहेना होगा. जो गांधीवाद प्रकृति प्रति वापस मुडने की बात करता है. वह विशाल समूह को नग्नता की तरफ, अति गंदगी की तरफ, गरीबी की तरफ और अज्ञानता की तरफ ले जाने की बात करता है.
11
ओशो जन्म जयंती
जो समाज लोकतंत्र को आर्दश के रुप में नहीं स्वीकार करता वह समाज में शायद गांधीवाद स्वीकार्य बनेगा. जो समाज लोकतंत्र में नहीं मानता वह यंत्रो और उस पर आधारित सभ्यता के प्रति उदास रह सकता है.
12
गांधीवाद को काल्पनिक वर्गभेद से संतोष नहीं है. गांधीवाद वर्गों की रचना करने का आग्रह रखता है, समाज की वर्ग रचना का आदर करता है, इतना ही नहीं परन्तु आमदनी के भेद को भी पवित्र मानता है और परिणामस्वरुप धनिक और गरीब, उच्च और नीच, मालिक तथा कामदारो को समाजतंत्र का स्थायी अंग मानता है. सामाजिक परिणाम की द्रष्टि से इससे ज्यादा खतरनाक दूसरा कुछ हो नहीं सकता.
13
नागपुर में सभा. जय भीम सूत्र का प्रांरभ 1945
ट्रस्टीशीप के विचार द्वारा गांधीवाद ने एक ऐसा सर्वरोगहर औषध का सूचन किया, जिसके अनुसार धनिक वर्ग उसकी मिलकत को गरीबों के कल्याण के लिये ट्रस्ट की तरह देखभाल करेगा. गांधीवाद की वर्गविचारधारा का यह सबसे हास्यास्पद भाग है.
14
हिन्दु दत्तक ग्रहण और निर्वाह विधेयक पारीत 1956
गांधीवाद का सामाजिक आदर्श या तो ज्ञाति है या फिर वर्ण है. दोनों में से कौन सा उसका आदर्श है यह कहना मुश्किल है, परन्तु इसमें कोई शंका नहीं है कि गांधीवाद का सामाजिक आदर्श लोकतंत्र कतई नहीं है. चाहे कोई जाति या वर्ग की तुलना करे, परन्तु दोनों मूलभूत रुप से लोकतंत्र के विरोधी है.
15
रोयल कमिशन समक्ष भारतीय चलन के बारे बाबासाहब की प्रस्तुति 1925
हिन्दु समाज टीक रहा है और अन्य समाज मृत:प्राय हो चुके है या फिर अदृश्य हो गये है, यह तनीक भी सराहनीय नहीं है. अगर यह समाज जी रहा है तो यह उसकी ज्ञातिप्रथा के कारण नहीं बल्कि इसलिये कि हिन्दुओं को जीतनेवाले विजेताओं ने उनकी सामूहिक हत्या करना उचित नहीं समजा. सिर्फ जीने में कोई गौरव नहीं है, महत्वपूर्ण है जीने का स्तर.
16
2000 महार मांग बंधुआ मजदुरों की परिषद में महार वतन पर सरकारी कर का विरोध 1939
17
दूसरे कई लोगों ने जातिप्रथा का बचाव किया है, परन्तु पहलीबार ही मैंने उसके समर्थन में इस तरह की आघातजनक नहि तो असाधारण दलील को देखी है. रुढिचुस्त भी शायद यही कहेंगे कि "हमें श्री गांधी से बचाओ". इससे यही मालूम पडता है कि श्री गांधी हिन्दुत्व के कितने गहरे, पक्के रंग से रंगे हुए है. रुढिचुस्त हिन्दु से भी वे आगे निकल गये है. यह एक गुफावासी मनुष्य की दलील है, सिर्फ ऐसा कहना ही काफी नहीं है. यह तो सचमुच एक पागल मनुष्य की दलील है.
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दलित शरणार्थीओ की भयानक परिस्थिति से नेहरु को वाकिफ किया 1947
श्री गांधी जानते है कि उनके ही गुजरात प्रांत में किसी ज्ञाति ने लश्करी एक्म खडा नहीं किया है. यह सिर्फ विश्वयुद्ध में ही नहीं, परन्तु पिछले विश्वयुद्ध में जब श्री गांधी ने ब्रिटीश शाहीवाद के भरती एजेन्ट के रुप में समग्र गुजरात में प्रवास किया था तब भी नहीं हुआ था. हकीकत में तो रक्षण के लिये लोगों का सेना के रूप में जमावड़ा ज्ञातिप्रथा के नीचे अशक्य बनता है, क्योंकि सेना के जमावड़े के लिये ज्ञातिप्रथा के अंतर्निहित व्यावसायिक सिद्धांत की सामान्य नाबूदी अनिवार्य है.
19
डॉ. पी. जी. सोलंकी जन्मजयंती 1976
श्री गांधी ने ज्ञातिप्रथा की चर्चा को बदलकर वर्णप्रथा का स्वीकार किया. इससे गांधीवाद लोकतंत्र के विरुद्ध है, इस आक्षेप में थोडा सा भी फर्क नहीं पडता. हकीकत में तो वर्ण का ख्याल ही ज्ञाति के ख्याल का जनक है.
20
महाड में मनुस्मृति दहन 1927
वर्णव्यवस्था अगर जिंदा है तो वह भगवदगीता के कारण. मनुष्य के प्रकृतिगत गुण के आधार पर वर्णो की रचना हुई है. इस तरह की दलील करके गीता ने वर्णव्यवस्था को तात्विक आधार दिया. वर्णव्यवस्था को सहारा देने तथा मजबूत बनाने के लिये भगवतगीता ने सांख्य तत्वचिंतन का उपयोग किया, नहीं तो वर्णव्यवस्था बिल्कुल निरर्थक है ऐसा मान लिया जाता. उसका गले उतरे ऐसा आधार देकर वर्णव्यवस्था को नया जीवन देने का पर्याप्त तूफान भगवदगीता ने किया है.
21
जैसे कि वह साम्यवादी हो उसी तरह गुस्से से लाल हो कर श्री गांधी कभी कभी सामाजिक और आर्थिक विषयो पर बोलते है. गांधीवाद का अभ्यास करनेवाले व्यक्ति को श्री गांधी के कभी-कभी लोकतंत्र तरफ़ा और पूंजीवाद विरोधी विरोधाभासी विधानों से कभी आश्चर्य नहीं होगा. क्योकि गांधीवाद किसी भी अर्थ में क्रांतिकारी सिद्धांत नहीं है. यह तो एक बढ़िया रुढिचुस्तता है. जब तक हिन्द का संबंध है तब तक वह "प्राचीनकाल की तरफ जाओ" का सूत्र उसके ध्वज पर दर्शानेवाला प्रत्याघाती सिद्धांत है. गांधीवाद का ध्येय हिन्द के मृत्युशैय्या पर पडे हुए भयंकर भूतकाल को प्रोत्साहित करने का, सजीवन करने का है.
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पूना जिल्ला कानून पुस्तकालय समक्ष संसदीय लोकतंत्र पर बाबासाहब का वक्तव्य 1952
गांधीवाद एक विरोधाभास है. यह विदेशी शासन में से मुक्त यानि देश की प्रवर्तमान राजकीय रचना को नाश करने का दावा करता है. दूसरी तरफ यह एक वर्ग के दूसरे वर्ग पर आनुवंशिक वर्चस्व को यानि शाश्वत वर्चस्व को बनाये रखने का प्रयत्न करता है. इस विरोधाभास के बारे में क्या स्पष्टता है?
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कोल्हापुर में राजाराम कॉलेज का वार्षिक विधार्थी स्नेह मिलन 1952
पेरियार रामास्वामी स्मृति दिन 1973
हिन्दुओं के पवित्र कानून ठहराते है कि झाडुवाले की संतति झाडु मारकर ही जीवन जीयेगी. हिन्दु धर्म में झाडु मारने का काम पसंदगी का काम नहीं था परन्तु एक दबाव था. गांधीवाद ने क्या किया? झाडु लगाने का काम तो उदात सेवा है, इस तरह की प्रशंसा करके उसे स्थायी बनाने का प्रयत्न किया.
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सवर्णो ने चवदार तालाब का शुद्धिकरण किया, सरकार ने तालाब का पानी पीने की दलितो को मना फ़रमाई, बाबासाहब ने पुनः क्रांति की रणभेरी फुंकी.
शुद्र अगर संपत्ति रखते तो बदले में हिन्दुओं का पवित्र कानून उन्हे सजा करता था. गरीबी लादनेवाला यह एक ऐसा कानून है, जिसकी मिशाल दुनिया में कही नहीं मिलेगी. गांधीवाद ने क्या किया है? उसने वह प्रतिबंद हटाने के बजाय संपत्ति का त्याग करने की शुद्र की नैतिक हिंमत को आशिर्वाद दिया. श्री गांधी के खुद के शब्द उद्धरण के योग्य है. वे कहते है, "अपने धार्मिक कर्तव्य के रुप में जो शुद्र सिर्फ सेवा करते है और जिनके पास कभी निजी मिलकत नहीं होगी और जिसे सचमुच कुछ भी संपत्ति रखने की आकांक्षा तक नहीं है ऐसे शुद्र हजारो प्रणिपात के योग्य है. स्वंय देवताओं भी उनके उपर पुष्पवर्षा करेंगे.
26
बेलगाम म्युनिसिपालिटी द्वारा सत्कार 1939
गरीबी किसी दूसरे के लिये नहीं परन्तु शुद्रो के लिये अच्छी है, ऐसा उपदेश देना, झाडुवाला का काम किसी दूसरे के लिये नहीं परन्तु अस्पृश्यो के लिये अच्छा है ऐसा उपदेश देना और इस त्रासदायक फ़र्ज को जीवन का स्वैच्छिक हेतु मनवाकर उसका स्वीकार करवाना और ऐसा करने में उनकी निष्फलता को याचना करना, यह सब यह लाचार वर्ग का अपमान नहीं है? उनकी क्रुर मश्करी नहीं है? और ये सब निर्भयतापुर्वक और स्थिर बुद्धि से दूसरा कोई नहीं परन्तु श्री गांधी ही कर सकते है.
27
अगर कोई वाद ऐसा है कि जिसने लोगों को झूठी सलामती में सुला देने के लिये धर्म का अफ़ीम की तरह उपयोग किया हो तो वह गांधीवाद है. शेक्सपियर का अनुसरण करके कह सकते है, "बडी बडी बातें, करामतें, तेरा नाम गांधीवाद"
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दूसरी गोलमेजी परिषद से वापस आते गांधीजी के खिलाफ मुंबई बंदरगाह पर 8000 अस्पृश्य स्त्री- पुरुषो ने काले झण्डे दिखाये 1931
पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन ग्रंथ प्रसिद्ध 1940
गांधीवाद के अनुसार अस्पृश्य कानून पढ सकते है, तबीबी विधा सीख सकते है, ईन्जिनियरींग अथवा उन्हे जो भी पंसद हो उसका अभ्यास कर सकते है. यह अच्छा है, परन्तु अपने ज्ञान और विधा का उपयोग करने के लिये क्या अस्पृश्य स्वतंत्र होंगे?
29
रुढिचुस्त हिन्दु धर्म में भी ना मिले ऐसी कौन सी चीज गांधीवाद में है? हिन्दु धर्म में ज्ञातिप्रथा है, गांधीवाद में ज्ञातिप्रथा है. हिन्दु धर्म आनुवंशिक व्यवसाय में मानता है इस तरह गांधीवाद भी मानता है. हिन्दु धर्म इस दुनिया में मानव की स्थिति के बारे में पूर्व नियतिरुप कर्म के सिद्धांतो को पुष्टि देता है, गांधीवाद भी उसे पुष्टि देता है. हिन्दु धर्म शास्त्र की सत्ता का स्वीकार करता है, गांधीवाद भी स्वीकार करता है. हिन्दु धर्म ईश्वर के अवतारो को मानता है और गांधीवाद भी मानता है. हिन्दु धर्म मूर्तिपूजा में मानता है. उसी प्रकार गांधीवाद भी मानता है.
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पंढरपुर में सोलापुर जिल्ला दलित परिषद 1937
मुंबई में आठवीं राष्ट्रीय सामाजिक परिषद में सयाजीराव का उदघाटकीय भाषण 1904
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गुजरात में आरक्षित बैठकों को नाबूद करने के लिये राइटिस्ट अंतिमवादी आंदोलनकारीओं का सरकार को आवेदन पत्र, हिन्दु फासीवाद की प्रयोगशाला का भूमिपूजन 1981
गांधीवाद ने जो कुछ भी किया है, वह हिन्दु धर्म और उसके सिद्धांतो को तात्विक रुप में सही ठहराने के लिए किया है. हिन्दु धर्म को ढंक नहीं सकते, इस अर्थ में कि यह सिर्फ नियमों के एक चौकठा जैसा है, जिसके चेहरे पर एक घातकी और जाहिल व्यवस्था की छाप उभरी है. गांधीवाद उसे एक ऐसा तत्वचिंतन देता है, जो उसकी सतह को नरम बनाता है, उसे सौजन्य और आदर देता है और उसे सिर्फ बदलता है. इतना ही नहीं परन्तु यह आकर्षक लगे इस तरह इसे सजाता भी है.